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नन्दा राजजात

हिमालय की पुत्री और शिव की अर्धांगिंनी नंदा कुमाऊॅं और गढ़वाल वासियों के हृदय मैं रची बसी हैं। समूचे उत्तराखण्ड में उन्हें आद्याशक्ति पार्वती का रूप तो माना ही जाता है, उन्हें बहिन-बेटी मानकर भी जो स्नेह मिला है वह अन्य किसी भी देवी को प्राप्त नहीं हो सका है । जो आनन्द देने वाली शक्ति है वहीं नंदा है। नंदा के सम्मान में समूचे हिमालय में मन्दिर स्थापित किये गये, उनके लिए मेलों का आयोजन होता है। गढ़वाल में तो कुम्भ परम्परा के समान हर 12हवें वर्ष नंदा की पीठ नौटी गांव से नंदा शीर्ष के चरण होमकुन्ड तक एक वृहद यात्रा का आयोजन होता है। लगभग 264 कि0मी0 लम्बी यह पैदल यात्रा नंदाजात के नाम से जानी जाती है।

कितनी पुरानी है यह जात

नंदा राजजात की परम्परा कितनीं पुरानी है कहा नहीं जा सकता है। चूंकि यह यात्रा राजवंश द्वारा आयोजित की जाती थी इसलिए इसे राजजात कहा जाता है। किवदंतियां हैं कि जात की यह परम्परा जगद्गुरू शंकराचार्य के काल से प्रारम्भ हुई। इतिहासकार शूरवीर सिंह पंवार के अनुसार राजजात की यह परम्परा 1300 वर्ष तक पुरानी हो सकती है। जबकि डा0 शिवानंद नौटियाल का मानना है कि यह सातवीं शती तक प्राचीन है। डा0 राकेश तिवारी भी पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर इस यात्रा को पर्याप्त प्राचीन मानते हैं। देवाल, वेदिनी और कैला विनायक से प्राप्त पार्वती, भगवती और विघ्नेष्वर की 8वीं से 10 वी शती की प्रतिमाए, ज्यूरांगली की 9वीं शती की गणेष की अभिलिखित प्रतिमा इस ओर होने वाली धार्मिक यात्रओं की प्राचीनता को और अधिक पुष्ट करते है। कत्रौज के राजा जसधवल की कथा से स्पष्ट है कि चौदहवीं शती में भी इस यात्रा का आयोजन होता था। नंदोदेवी कमेटी नौटी के सचिव पंडित देवराम नौटियाल इस यात्रा को 9 वीं शती से प्रारम्भ हुआ मानते हैं।

कनकपाल की गाथा

श्री नंदादेवी राजजात 2000 कोट भ्रामरी मंदिर से प्रस्थान फोटो- कौशल सक्सेना

नदांजात के विषय मे वाचिक परम्परा, लोकगीत एंव जागर ही वह आधार हैं जिनसे हम इस प्राचीन परम्परा के सम्बन्ध में जान सकते है। कहा जाता है कि सातवीं शती में धार मालवा की राजधानी कत्रोज में राजा कनकपाल शासन करते थे। इन्हीं राजा कनकपाल के दरबार में हेमन्त ऋषि के भाई भारद्वाज के वंशज एक आद्यगौड़ ब्राहम्ण ने कनकपाल के विद्वानों को शास्त्रार्थ में हराकर कुल पुरोहित का पद प्राप्त कर लिया। उस ब्राहम्ण ने राजा को बदरीनाथ यात्रा के लिये प्रोत्साहित किया। राजा जब अपनी सेना सहित हरिद्वार पहुंचे तो उनकी आगवानी गढ़वाल के राजा भानुप्रताप ने की।

राजा भानुप्रातप बदरीनाथ के उपासक थे। देवताआ से वार्तालाप करने के लिए उनके पास देवी का श्रीयंत्र था।चूकि इस यंत्र के द्वारा वे भगवान बदरीनाथ से भी वार्तालाप किया करते थे, इसलिए राजा भानुप्रताप को बोलन्दा बद्रीनाथ भी कहा जाता है। राजा को बद्रीनाथ जी ने आदेश दिया कि तू हरिद्वार ज़ाकर राजा कनकपाल की यात्रा पूरी होने पर गढ़ी लाकर अपनी एकमात्र कन्या उन्हें सौंप दे। श्रीयत्रं के प्रभाव से राजा को वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ तथा यह भी कि उनकी इष्ट देवी नन्दा के भाईयों के वंश में पैदा हुए आद्यगौड ब्राह्राण कनकपाल के कुल पुरोहित हैं । बद्रीनाथ ने राजा भानुप्रताप को राजपाठ कनकपाल को सौपं अपनी सेवा में आने का भी आदेश दिया। राजा ने भगवान बद्रीनाथ के आदेषानुसार कार्य किया। चांदगढ़ी वर्तमान के आदि बद्री के नजदीक थी। वे बद्रीनाथ को आदि बद्री में, शैलेष्वर मठ में शिव को और चांदपुर गढ़ी में नन्दा श्रीयंत्र को पूजते थे। चांदपुर गढी में कनकपाल 745 विक्रमी में गद्दी पर बैठे। नंदादेवी भी इस अवसर पर चांदपुर गढ़ी आयीं। मायके और ससुराल दोनों का रिश्ता यहां हो जाने के कारण ही वे ‘राज राजेश्वरी’ कहलार्इं।

राजा कनकपाल के छोटे भाई (कान्से भाई) चांदपुर गढ़ी के पास आकर जिस स्थान पर बसे उस स्थान को कांसुवा तथा वे कांसुवे के कुँवर नाम से जाने जाते है। राजा भानुप्रताप के समय में भी नन्दा राजजात का आयोजन होता था। इष्ट देवी नन्दा की जात के आयोजन का भार उन्होने कांसुवा के कुवँर को सौपा तभी से राजंवशी कुँवर कांसुआ से राजजात का आयेजन करते है। शैलेष्वर मठ के पास का इलाका आद्यगौड़ ब्राह्राणें को दिया गया ये ब्राह्राण नोटी नामक तोक में बसे। नन्दा का श्रीयंत्र यहीं भूमिगत कर उसके पूजन की विधान निश्चित किया गया। नन्दा की नौबत उस स्थान पर बजने के कारण यह क्षेत्र नौटी तथा ब्राह्राण नौटियाल कहलाये। राजा ने निर्देष दिया कि नन्दा के भाइयों गौड़ बा्रह्राण का गांव ही नन्दा का मायका होगा। वे नन्दा को बुलायेगें। कॅुंवर यात्रा का आयोजन करेंगे। जात की व्यवस्था का भार मालगुजारों पर एवं व्यय समस्त प्रजा पर डाला गया।

राजा यशधवल का अन्त

यूँ तो कहा जाता है कि राजजात की परम्परा गढ़वाल में ही थी, लेकिन लोकगीतों से मालूम होता है कि 14 वीं शती में कत्रौज के राजा यशधवल ने भी जात का अयोजन किया था। लोकगीतों के आधार पर जो विषेशकर नौटी एवं बाण गांव में पाये जाते है नन्दा उक बार आकाश मार्ग से कत्रौज के राजा यश धवल एवं उनकी गढ़वाली रानी बल्लभा के दरबार में जा पहुंची परन्तु  वहां नन्दा का स्वागत भव्य नहीं रहा। आगमन का कारण पूछने पर नन्दा ने रानी का राज्य ही मांग लिया रानी ने राज्य देने से इन्कार कर दिया। नन्दा रूश्ट होकर वापस हिमालय तो पंहुच गयीं परन्तु रानी से कह आयीं कि अब ये राज्य सुख तुम भोग न सकोगी। नन्दा के जाते ही अवर्शण एवं अत्र का आकाल हो गया गायों ने दूध देना बन्द कर दिया, दूध में कीड़े पड़ने लगे। सर्प बाधायें उत्पत्र होने लगी। राजा द्वारा पूंछने पर कुलगुरू ने रानी के मायके की नन्दा की दोपोत्पति बताई। इस सबके निवारण के लिए राजजात की मनौती का विधान भी बताया गया।

यषधवल रानी बल्लभा पुत्र जड़ील एवं पुत्री जड़ीली को लेकर सैन्यदल व नर्तकियों के साथ राज जात के लिये चल पड़े। रानी बल्लभा उस समय गर्भवती थी। हरिद्वार होता हुआ यह दल बाण ग्राम तक सकुषल पहुँच गया। लेकिन राजसीदर्प में यात्रा नियमों का उल्लघंन होने लगा। रिणकीधार से आगे स्त्रियों बच्चों, अभक्ष्य ग्रहण करने वालों तथा अषुद्व वस्तुओं के उपर निशेद है। लेकिन राजा ने यहां नृत्य का आयोजन किया। क्रोधित भगवती ने नर्तकियों को षिलाओं मं परिवर्तित कर दिया रिणकीधार का नाम तब से ‘पातर नवौड़ी पड़ गया लेकिन राजा सचेत न हुए। बगुवासा से लगभग 100 मीटर आने गँगतोली गुफा में रानी बल्लभा को प्रसव वेदना हुई। रानी ने कन्या को जन्म दिया अब भगवती के कोप का ठिकाना ना रहा प्रचण्ड ओलावृश्टि हुई। रानी के अतिरिक्त सैन्य दल, राज कुमार एवं राजकुमारी रूपकुण्ड के उपर ज्यूरांगलीढाल पर रूके थे। वहा भी ओलावृश्टि हुइ।नन्दा के सेवक लाटू ने लोहा और पत्थर की वर्शा की। राजा, रानी, राजकुमारी और सैन्यदल समाप्त हो गया। बल्लभा को प्रसूती के कारण गंगतोली, गुफा का नाम बत से ‘बल्लभा का प्रसूती ग्रह पड़ गया। प्रसूती के समय वर्शा से पराल नन्दाकिनी में वह जाने के कारण पर्व काल में नन्दाकिनी का जल देवताओं को नही चढ़या जाता। नन्दा ने चांदपुर गढ़ी के राजा को आदेष िदिया कि तू जब भी यात्राा हेतु इस और आयेगा वैतरणी कुण्ड में इन मृतकों का तर्पण करना? तभी से रूपकुण्ड के मृतकों के तर्पण की परम्प्रा है।

क्हते है एक बार इस ओर गुजरते हुए पार्वती को प्यास लगी तब षिव ने अपने त्रिसूल को गाढ़ कर इस ताल की रचना की थी। षिव के साथ पार्वती ने इसके जल में अपनी छवि निहारी और रूपकुण्ड नाम दिया। एक मान्यता यह भी है कि अपने भक्तों के साथ षिव पार्वती कैलाष की ओर जा रहे थे। रास्ते की थकावट से कलान्त देवी देवता भगवती की आज्ञा लेकर स्थान-स्थान पर रूकने लगे।कैलाविनायक में कैलदेव रूके, बग्गू बासा में बाघ तथ्ज्ञा छिडीनाग में नागदेव व हिमकुण्ड के नजदीक रूप्यदेव भी ठहर गये। तब से इस कुण्ड को रूपकुण्ड कहा जाने लगा। नन्दादेवी पर्वत समूह के पष्चिमी छोर पर स्थित 450 फीट परिधि वाले इस कुण्ड से रूपगंगा निकलती है। षिव ने अर्द्वनारीष्वर रूप सबसे पहले यहीं धारण किया, ऐसा विष्वास है।

सोलह हजार फुट की ऊॅंचाई पर स्थ्ज्ञित रूपकुण्ड कदाचित विष्व का सबसे ऊॅंचा पुरातात्विक स्थ्ज्ञल है। इस कुण्ड में अनेकानेक मानव ककाल भी प्राप्त हुए है। 1942 में वन विभाग के एक अधिकारी श्री मधववाल ने यहां नर कंकालों की उपसिथति की सूचना जब षेश संसार को दी तो तहलका मच गया था।

यहां प्राप्त 200 लोगों के कंकालों में बच्चे, बढे अर स्त्रियों के कंकाल षमिल है। अस्थियो के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताऐं और मत होने के बावजूद स्वामी प्रणवान्नद की यह मान्यता ज्यादा स्वीकार की गयी है कि यह कंकाल असमय मृत्यु को प्राप्त हुए किसी राजजात दल के हाेंगे। कदाचित उसके बाद ही स्त्रियों बच्चों के वेदिनी से आगे आने पर प्रतिबन्ध लगाया होगा। डा0 मजूमदार के अनुरोध पर 1956 में अमेरिका वैज्ञानिक डा0 ग्रिफिन ने कार्बन परीक्षण के आधार पर स्थ्यिों की तिथी 650-150 वर्श निर्धारित की है। कुछ विद्वानों का मतह ै कि रूपकुण्ड की अस्थियां ज्यूरांगली मौत की गली से छलांग लगाकर धार्मिक आत्महत्या करने वाले लोंगो की रही होंगी। जागेष्वर अभिलेख में धर्मिक आत्महत्या के लिए इस ओर आने वाले लोगों का उल्लेख भी मिलता है।

राजजात की तैयारी

मान्यता है कि जब-जब नन्दा की दोषोत्पति का भास होता है तो कुँवरों की थोकदारी में एक चौसिंघा मेढ़ा खाडू ज़न्म लेता है। कुवर कांसुआ से बसन्त पंचमी के दिन नन्दा के भाईयो के गांव नौटी आकर श्रीयंत्र की पूजा कर नन्दा से मायके आने का आग्रह करते हैं। पूजा के लिए आते समय रिंगाल, भोजपत्र की छन्तोली लाने की परम्परा है। इसके बाद तल्ला चांदपुर गढ़ी के सिमली गांव में यात्रा सम्बन्धी बैठक आयोजित की जाती है। व्यवस्था के लिए कुॅवर की अध्यक्षता में समिति बनायी जाती है। समिति के मंत्री नौटी गांव से होते है। जात का दैनिक कार्यक्रम बनाया जाता है। उसको राजजात के मार्ग में पड़ने वाले गांवों को भेजकर व्यवस्था सुनिश्चित की जाती है।

चार सींग मेढ़ा पैदा होने की सूचना कुँवर तक तुरन्त पहंचाई जाने के बाद उसका पूजन किया जाता है। उसको भोजन शुध्द एवं स्वादिष्ट दिया जाता है। माना जाता है कि भोजन नन्दा का भोग है। मेढ़े का पैदा होना नन्दा के आगमन का प्रतीक है। इसकी देखभाल का दायित्व कुँवर का होता है।

भाद्रपद माह की अष्टमी से सत्रह दिन पूर्व कुँवर मेढ़े और छन्तोली को लेकर पहुंँचते है। नन्दा की सोने की प्रतिमा का पूजन होता है। यहां देवी के आभूषण तैयार किये जाते हैं। रिंगाल की छन्तोली पर नन्दा को सजाया जाता है। प्रतिमा की प्राण प्रतिश्ठा होती है। अन्तिम गांव वाण से आगे के लिए खाद्य पदार्थ तैयार किये जाते है। दूसरे दिन शुभ भुहुर्त में नन्दा को बिदा किया जाता है। बधाण क्षेत्र नन्दा का ससुराल क्षेत्र है। चांदपुर क्षेत्र में व्यवस्था का भार कुँवर पर तथा बधाण क्षेत्र में यात्रा की व्यव्स्था बुटोला थोकदार करते है।

नन्दा सबसे पहले ईडाबधाणी जाती है। और शाम तक पुन: नौटी आ जाती हैं।कहा जाता है कि एक सदस्य ईडाबधाणीं के मुखिया जमुना जड़ौदा गुसाईं को नन्दा ने बचन दिया था कि जब भी मे  मायके से ससुराल जाऊॅंगी तो तुम्हारे घर की पूजा अवश्य लूंगी। तभी से नौटी से विदा होने से पूर्व नन्दा इडाबधाणी गा्रम जाकर पूजा स्वीकार करती हैं।

नन्दा का अवतरण

नन्दा की विदा की पूर्व रात्री को नन्दा के गीत गाये जाते है। बताया जाता है कि तब गीतों के बोल नन्दा का साक्षात आहा्रन कर देते है। किसी युवती पर नन्दा का अवतरण होता हैं। और वह युवती जेसे मायके से ससुराल जाने वाली नन्दा ही हो जाती है।पितृ पक्ष से बिछुड़ना अपनों से वियोग और अपने गांव, अपने स्वजनों की स्मृतियां किसे न रूला देगी। नन्दा भी सजल नयमों से बार-बार अपनों को निहारती है। उठ-उठ कर गांव भर के बुजुर्गो के अंक लगती है। बुजुर्ग महिलायें उपदेश देती है। नन्दा का ससुराल जाने से पूर्व का रूदन सभी की आंखों में आंसुओं की झड़ी लगा देते है। बच्चे और समवयस्क भी नन्दा की विदाई से रो-रो उठते है। बिछोह की घडी बेटी की विदाई के दृष्य को उपस्थित कस्ती है। वे किसी तरह समझा-समझा कर नन्दा के कदम ससुराल की ओर बढ़ाते है। चार सींग वाला मेढ़ा यात्रा में साथ चलता है।

नन्दा नौटी के कुँवरों के गांव कांसुवा पहँचती है यहां महादेव घाट पर नन्दा की पूजा होती है यहां तक नौटियाल एवं कुँवरों की छन्तोलियां का सबसे प्रथम मिलन महादेव घाट पर होती है। कांसुवा में रात्री विश्राम के बाद दूसरे दिन नन्दा की विदाई होती है। यात्रा चांदपुर गढ़ी पहुँचती है। यहां भी पूजन सम्पन्न होता है। रात में सेम गांव में चमोला, गैरोली, चूलाकोट की छन्तोलियों का भी मिलन होता है। प्रत्येक छन्तोली में नन्दा के लिए वस्त्राभूशण भी लाये जाते है। नन्दा का जागर लगता है। नन्दा के गीतों के बोल गूंजते हैं। नन्दा का आह्नान होता है।

सेम गांवसे नौटी देख-रेख कर नन्दा का मन भारी हो जाता है। अबकी बार की विदाई के बाद न जाने कब मायके आने का अवसर मिले। कुटुम्बियों से न जाने कब मिलन हो। नन्दा के पांव सिमतोली से आगे जैसे बढ़ते ही नहीं। इस अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में बेटी को ससुराल हेतु सैकड़ो उपदेष है। कोटि-कोटि कोषिषों के बाद नन्दा को ससुराल की ओर बढ़ाया गया इसलिए इस क्षेत्र का नाम ही कोटी पड़ गया।

कोटी में लाटू देवता भी नन्दा से मिलने आते हैं। बगोली ग्राम के लाटू भी निशाण सहित मिलने के लिए आते है। डा0 शिवानंद नौटियाल लिखते हैं- ”यहीं पर स्वर्खा का केदारू, रतूड़ा, घलोड़ा की छन्तोलियां भी मिलती है। नन्दा की यात्रा अब घतूड़ा के खेतों में पहुँचती है तो देवी के पहलवानों में मल्लयुध्द होता है। घतोड़ा, बम्याला, कैड़वाल गांव की पूजा लेकर भगोती के मन्दिर में रात्री विश्राम होता है।” क्यूर गेधेरे को पार करते-करते नन्दा का रूदन पुन: फूट पड़ता है क्योंकि गधेरे की सीमा ही मायके की भी सीमा है। यहीं से ससुराल का क्षेत्र प्रारम्भ हो जाता है। सायं तक यात्रा कुलसारी पहुँच जाती है।

नन्दा का ही एक रूप काली भी है। अमावस्या के दिन कुलसारी में नन्दा के ‘काली यंत्र’ की भूमि से निकाल कर पूजन कराया जाता हे। नन्दा से काली यंत्र के मिलन के पश्चात उसे पूुन: भूमिगत कर दिया जाता है। कुलसारी से थराली होती हुई नन्दा यात्रा का विश्राम चोपड़ियू में होता है।

दैत्यों का अन्त और बाण गांव में

राजजात का नन्द केसरी अगला पड़ाव है। यहां गाजे बाजे ढोल नगाड़ो के साथ चारों और से देवी देवता आते है। नन्द केसरी मन्दिर में छन्तोलियों का मिलन होता है। कुरूड़ की नन्दा यहीं आकर मिलती है। नन्द केसरी में देवी ने अष्टभुजी होकर मुधु कैटभ नामक दैत्यों को मारा था। दैत्यों के रक्त से तिलवा दैत्य जन्मा। फलदिया गांव में देवी ने चंडिका रूप धारण कर तिलवा दैत्य को अपने नखों से फाड़ दिया। तभी से इसका नाम ‘तिलफाड़ा’ पड़ गया। रात्री वश्रिाम यहां फलदिया गांव में होता है। मुनोली गांव में अगली रात विश्राम के समय नन्दा की विशिष्ट पूजा सम्पन्न होती है। मुनोली के पास लोहाजंग वह स्थान है जहां देवी के हाथों लौह दानव रक्तबीज मारा गया था लोहाजंग होती हुई यात्रा अन्तिम गांव बाण पहुँचती है।

नन्दा के चचेरे भाई का नाम लाटू है। कहा जाता है कि नन्दाकी विदाई के समय वह नशा कर उच्छृखलता करने लगा तो तंग आकर बाण में उसे बन्द कर दिया गया। तब से बाण में स्थापित लाटू देवता को केवल राजजात के समय बहिन से मिलवाने के लिए खोला जाता है। मिलने के उपरांतम उन्हें फिर मन्दिर में ही बन्द कर दिया जाता है। बाण में ही दशमद्वार की नन्दा, अल्मोड़ा की नन्दा, कोट की नन्दा की कटार, बद्रीनाथ की छन्तोली का मिलन होता है, कहा जाता है कि उसी कटार से देवी ने दैत्यों का विनाष किया। बाण से ही अल्मोड़ा की नन्दा और कोट की कटार लौटा दी जाती है। नन्दा की जात में लाटू का निशाण भी यहां से चलता है।

बाण से आगे

बाण गांव के ऊपर रिणाकीधार को भी अलग कहानी है। लोकगीत बताते है कि यहाँ देवी ने महिषासुर को मारा था। आगे दैत्यों का आतंक न होने से यात्रा शान्त चलती है। बाग के बाद यात्रा के कुछ विशेष नियम हैं। सबसे प्रथम चार सींग वाला मेढ़ा, दूसरे स्थान पर लाटू का निशाण तथा तीसरे स्थान पर नौटी को छन्तोली होती है। रिंगाल की छनतोलियां तथा देवी देवताओं की छन्तोलियां क्रमश:: चौथे व पांचवे स्थान तथा भोज पत्र की छन्तोली अन्तिम होती है। मेढ़ा यहां से यात्रा का नेतृत्व करता है। उसे निर्देष देना मना है।

रिणकीधार के आगे स्त्रियों, बच्चों, अभक्ष्य ग्रहणकरने वाले तथा चमड़े की वस्तुओं पर निषेध है। कैलगंगा में स्नान कर भोजन ग्रहण होता है। रात्री  वास गरोली पातर में होता है। दूसरे दिन वैतरणी कुन्ड पहुंचते हैं। इस कुण्ड के पास ही महिशासुर मर्दिनी के दो भगवती मन्दिर है। इसमें मुकुट, कुण्डल, हार माला, गै्रवेयक, मेखला आदि से अलंकृत मध्यकालीन दषभुजी महिश मर्दिनी की दर्शनीय प्रतिमा है। वेदों की यहां रचना हुई इसलिये इसे वेदिनी भी कहते है। रूपकुण्ड के मृत यात्रियों को राजबंषीय कुंवर यहां पिण्डदान कर तर्पण करते हैं। सूत का धागा ले यात्री कुण्ड के चारों ओर खड़े हो तागा तोड़ उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करते है। यात्री भी अपने-अपने पूर्वजों को पिण्डदान करते है। यात्रा निरालीधार पहुंचकर  विश्राम लेती है। निरालीधार के पास ही कैला विनायक है। समुद्रतल से 14,000 फीट की ऊॅंचाई पर स्थित इस स्थान पर चतुर्भुजी, त्रिनेत्रधारी, एकदन्त, लम्बोदर, ललितासन में बैठे गणेष है। इनके सर पर शोभित छत्र प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इस प्रतिमा का निर्माण नवीं षती में हुआ प्रतीत होता है। कैला विनायक के गणेष का पूजन भी अनिवार्य है। ज्यूरांगली (17200 फुट) जिसको मौत की गली कहते हैं, में यात्रियों द्वारा धार्मिक आत्महत्याकरने की भी प्राचीन समय में परम्परा रही होगी, होकर यात्रा शिला समद्र तथा अन्तिम पड़ाव होमकुण्ड पहुंचते है। इसी होमकुण्ड से नन्दा की अन्मि विदाई होती है। होमकुण्ड की विषाल षिला पर वर्शों पूर्व उकेरा गया श्री यन्त्र है। यहां सबके बीच में नन्दा की छन्तोली दायीं ओर कुरूड़ की नन्दा, बांयी ओर दशमद्वारा की नन्दा, लाता की नन्दा थोक की छन्तोली तथा भोजपत्र की छन्तोली होती है।

होमकुण्ड में मेढ़े को राजजात के पास लाकर उसका पूजन होता है। राजगुरू के माध्यम से कांसुवा के कुँवर पूजा सम्पन्न कराते हैं। यज्ञ हवन सम्पन्न होता है। लाल कपड़े में नन्दा के वस्त्राभूशण मेढ़े पर रखे जाते है। सभी यात्री मेढ़े पर अक्षत व चन्दन लगाते है। और मेढ़े से मन ही मन कामना करते हैं कि नन्दा को ससुराल सुरक्षित पहूँचा देना। भीगी पलकों से मेढ़े की विदा किया जाता है। यात्री अपनी-अपनी सुविधा के रास्ते से घर लौट जाते है। चन्दन घाट होते हुए कुँवर, राजगुरू, नौटीवासी लौटते हैं। यहां से थोड़ी दूर पर पड़ने वाले द्यौसिंह-भौंसिंह मन्दिर के कपाट पूजा के लिये खुलते है। सुतोल में देवी देवता विदा किये जाते है। नौटी मे पुन: पूजा के बाद कुँवर को विदा किया जाता है।

नन्दा राजजात के प्रामाणिक दस्तावेज गोरखों के शासन में समाप्त हो गये। ताम्रपत्र या भोजपत्र पर लिखी सनदें भी नहीं रहीं। इसलिये प्रामाणिकता का एकमात्र आधार लोकगीत ही रह गये हैं जो इस  क्षेत्र में सदियों से गाये जा रहे हैं। हांलाकि मजूमदार की रिपोर्ट से यह सिध्द तो हो गया कि रूपकुण्ड की अस्थियां कम से कम 576 वर्श पूर्व की हैं तो भी किसी मूल निश्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका है।

यात्रा की 12 वर्श की परम्परा के सम्बन्ध में भी लोग एकमत नहीं है। जहां तक प्रमाण उपलग्ध हैं यह 1886, 1905, 1925, 1951, 1968 तथा अब 1987 में हुई। इनसे भी यह नहीं लगता कि परम्परा हर 12वें वर्श निभाई गयी। 1951 की यात्रा भी पूरी नहीं हो पायी। कन्नौज के राजा यश धवल की सेना यदि यहां नष्ट हुई होती तो स्वाभाविक है कि अस्त्र-षस्त्र भी प्रचण्ड मात्रा में मिलते; इसलिये रूपकुण्ड की अस्थियों को राजजात से सम्बन्धित करना ही उपयुक्त लगता है, क्योंकि यहां से प्राप्त सामग्री में छड़ियां, चूड़ियां, टोकरियां, चमड़े की चप्पलें, बाल-कपड़े, गहने, बर्तन इत्यादि है। जो किसी अनुष्ठान के लिये निकले यात्री दल की असामयिक मृत्यु का संकेत करते है। जिसमें आधे 20 वर्श लगभग के तरूण, पंचमांष 21 से 30 वर्श के तथा इतनी ही संख्या में 31 से 50 वर्श आयु वाले प्रौढ़ रहे होंगे।

प्राय: हिन्दुओं में यात्रा सीधी होती है परन्तु नन्दा राजजात की परिक्रमा उल्टी है। बौन धर्मावलम्बी ही उल्टी परिक्रमा करते है। वैसे भी बौन लोग तन्त्र मन्त्र में विश्वास करते व श्क्ति की पूजा करते हैं। कुछ गढ़वाल के पौण और इस बौन को सम्बन्धित करते है। यात्रा का बौन धर्म से क्या सम्बन्ध हो सकता है यह भी प्रश्न चिन्ह हैं।

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