हिमालय शिव का आवास है । इसकी पर्वत श्रेणियों पर शिव सर्वत्र विचरण करते हैं। शिव के उन्मुक्त विचरण के कारण ही मध्य हिमालय की इन श्रृंखलाओं को शिवालिक के नाम से जाना जाता है । इसी शिवालिक अंचल में अल्मोड़ा नगर से ३५ किमी. दूर शेैव संस्कृति का केन्द्र जागेश्वर है जो कत्यूरी मूर्तिकला एवं मन्दिर स्थापत्य की दर्शनीय आभा प्रदर्शित कर रहा है ।
जागेश्वर में कभी डेढ़ सौ के लगभग छोटे-बडे़ देवालय विद्यमान थे । आसपास के स्थान वन में एक सौ चालीस के लगभग मन्दिर और भी थे । जनश्रुतियों के अनुसार जागनाथ मन्दिर का निर्माण स्वयं विश्वकर्मा ने सम्पन्न कराया तथा विक्रमादित्य ने महामृत्युजय मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था । क्षेत्र में जगत गुरू शंकराचार्य के आने और जागेश्वर मन्दिर को कीलित करने की दन्त कथाएं भी प्रचलित हैं। शालीवाहन नामक कत्यूरी राजा द्वारा यहाँ के मन्दिरों के जीर्णाेंद्धार की कहानियों भी कहीं जाती हैं । उपलब्ध तामपत्रों और अभिलेखों से मालूम पड़ता है कि चंदवंश के राजाओं ने भी यहाँ देव प्रतिमाओं की स्थापना की । जागेश्वर मन्दिर समूह जिस महाशमशान के समीप स्थित है, यहाँ कभी कत्यूरी रानियां सती हुई थीं ।
महाशमशान के समीप, देवदारके घने वन के बीच स्थापित जागेश्वर के देवालयों के संबंध में भी अनेक जनश्रुतियां प्रचलित हैं । एक जनश्रुति के अनुसार जागेश्वर में ही सर्वप्रथम शिवलिंग का प्रादुर्भाव हुआ ।
जागेश्वर के संबन्ध में एक और अनुश्रुति है । कहा जाता है कि भगवान श्री राम के पुत्र लव और कुश ने यहाँ यज्ञ किया था जिसमें अनेक देवता भी बुलाये गये थे । बाद में इन देवताओं की यहाँ प्राण-प्रतिष्ठा की गई । जागेश्वर में मन्दिरों का शिल्प और प्राप्त प्रमाण इस धारणा को पुष्ट करते हैं कि इन मन्दिरों का निर्माण काल आठवीं शती या उसका पश्चातवर्ती काल ही होगा । उत्तर भारत की नागर शैली ही यहाँ के अधिकांश मन्दिरों की विशिष्टता है । यद्यपि गजपृष्ठाकृति और उड़ीसा की पीढ़ा देउल शैली के मन्दिर भी यहीं मिलते हैं लेकिन इनकी संख्या अपेक्षाकृत कम है ।
जागेश्वर के मुख्य मन्दिर समूह और आसपास के देवालयों का शिल्प पुरातत्ववेत्तओं के निरन्तर आकर्षण का केंन्द्र बना है । जागनाथ, महामृत्युंजय, डंडेष्वर और पंचकेदार, लक्ष्मेक्षवर, नटेश्वर, कुबेर, लक्ष्मी, नवदुर्गा, नारायणी, पुष्टिदेवी मन्दिर बरबस ही पुरातत्वेत्ताओं और जनसाधारण को अपनी ओर खींचते हैं ।
जागेश्वर तीर्थ जटागंगा के किनारे अवस्थित है । जटागंगा के पास पहुंचते ही मन्दिरों के सुनहले शिखर चमचमाते हुए दिखाई देते हैं । बताया जाता है कि कत्यूरी काल से बनने वाले यह मन्दिर सोलहवीं शती तक निरंतर बनते रहे । मन्दिरों के शिल्प पर काल और समय का प्रमाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । पर्वतीय क्षेत्र में स्थान की कमी ने व्यवस्थित रूप से मन्दिर के निर्माण पर प्रतिबन्ध जैसा लगा दिया । फलस्वरूप जिसको जहाँ जैसी जगह मिली, छोटे-बड़े मन्दिरों की स्थापना होती गई ।
पर्वतीय मान्यताओं के अनुसार जागेश्वर का जागनाथ मन्दिर नागेश नामक ज्योर्तिलिंग है । यह भी कहा जाता है कि इस ज्योर्तिलिंग का निर्माण पर्वतीय क्षेत्र के नागवंशीय राजाओ ने करवाया था ।
देवदार के जंगल में होने के कारण इसे नागेश माना गया है । एक अन्य धारणा यह है कि उत्तराखण्ड में फैली महान नाग जाति द्वारा युद्ध विजित करने के बाद यहां जाग (यज्ञ) सम्पन्न किये जाते थे। ह्वेनसांग ने भी इसका जिक्र किया है ।
जागनाथ मन्दिर उत्तर भारतीय या इंडो आर्यन शैली का मन्दिर है । जागनाथ मन्दिर के प्रवेशद्वारों पर रक्षक के रूप से भैरव को रौद्र एव सौम्य रूप में स्थापित किया गया है । पश्चिमाभिमुख मंदिर की पीठ नहीं बनायी गयी है । त्रिरथ जंघा एवं त्रिभंग शिखर निर्मित है । शिखर को मुख्य दीवारों से अलग करने के लिये विशिष्ट नमूने की पट्टिका बनायी गयी है । मंडोवर को जगह-जगह चैत्य नमूनों से अलंकृत किया गया है। बाहर की ओर भी दीपाधार बनाये गये हैं । नीचे से उपर की ओर भूमि आमलक बने हैं। मंदिर सदृश आकृतियों से उभारों का सौन्दर्य निखारा गया है । शीर्ष पर आमलसारिका बनी है । उत्तर दिशा में शिवत्रिमूर्ति, दक्षिण की और शिरोवस्त्र धारण किये मानव आकृति विशेष दर्शनीय है । मंडप की दीवारें सादी हैं परन्तु मंदिर के स्तम्भों को पुष्प और लताओं से अलंकृत किया गया है । द्विस्तरीय शुकनास पर गजसिंह विराजमान है ।
मन्दिर में प्रवेश करते ही पार्वती-नन्दन गणेश मिलते हैं । गणेश प्रतिमा की पादपीठ पर स्थित छिद्रों से प्रतीत होता है कि कभी इस प्रतिमा का प्रयोग तांत्रिक कार्यों के लिये होता होगा । गर्भगृह में पूजा के लिये लिंग प्रतिष्ठा की गयी है । गर्भगृह की दीवारो में प्रकाश के लिये जाली का निर्माण एवं दीप प्रज्जवलन के लिये दीपाधारों का निर्माणहुआ है । इसी गर्भगृह में धातु की अत्यंत प्राचीन प्रतिमाएं भी हैं जिनमें एक के हाथ में दीपक और दूसरे के हाथ में यज्ञ के लिये चम्मच है । एक तीसरी पौण राजा की प्रतिमा यहां से चोरी जा चुकी थी जिसको बाद में दिल्ली में बरामद कर लिया गया। मण्डप की छत का हाल ही में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने जीर्णोद्धार कराया है ।
जागनाथ मन्दिर के पश्चिम में समूह का केन्द्र मन्दिर महामृत्युंजय है, जो विशाल एवं भव्य है । यह मंदिर भी मारू प्रतिहार शैली में वना है । मुख्य दीवारें पंचाग है । शिखर तक चैत्य अलंकरण बनाये गये हैं । भद्रमुख भी बना है । मन्दिर के शिखर एव बाह्य दीवारों को चैत्य नमूनों से सजाया गया है । मन्दिर की शुकनास पर एक राजा एवं रानी द्वारा पूजे जा रहे लकुलीश विद्यमान हैं । यह अलंकरण पर्ण कलश एव पर्ण नमूनों से घिरा हुआ है । दो अन्य स्थानों पर गणेश स्थापित किये गये हैं । ऊपर की ओर शिव का त्रिमुख अंकित है । शुकनास पर भारतीय मन्दिरों में मिलने वाला परम पावन प्रतीक गजसिंह भी है।मन्दिर का जगमोहन आयताकार है । इसके स्तम्भों पर अर्ध पद्म एवं पर्ण नमूने अंकित हैं । दीवारों एवं स्तम्भों पर अभिलेख उत्कीर्ण हैं । मन्दिर में पूजन के लिये यहां भी प्राकृतिक शिवलिंग है । जागेश्वर समूह का सबसे विशाल मंदिर डंडेश्वर है जो मुख्य मन्दिर समूह से थोड़ा दूर स्थित है । इसकी भी शुकनास पर शिव त्रिमूर्ति और गजसिंह स्थापित किये गये हैं । मन्दिर के शिखर के ऊपर काष्ठ निर्मित बिजौरा है । मदिर में स्थापित लिंग-युग्म लिंग है । प्राकृतिक शिलाखंड ही लिंग रूप में पूजा जाता है । मंदिर में ऊपर की ओर शिव त्रिमूर्ति तथा नीचे की ओर देवालय अंकित हैं । कुछ विद्वानो के अनुसार सम्पूर्ण भारत में यह अपनी शैली का एकमात्र प्रतिनिधि मंदिर है ।
<p> ( फोटो गैलरीः सिंधु गंगोला )</p>अन्य मन्दिरों में पीढ़ा शैली में निर्मित केदार मन्दिर के द्वारपाल कार्तिकेय हैं और ललाटबिम्ब पर गणेश स्थापित हैं । यहीं पर सेवकों सहित लकुलीश विद्यमान हैं । प्रतीत होता है कि लकुलीश का अंकन इस कारण भी ज्यादा रहा क्योंकि लकुलीश का माहेश्वर सम्प्रदाय यहाँ विद्यमान था । कई कत्यूरी राजा भी अपने को परममाहेश्वर उपाधि से विभूषित करते रहे हैं । अन्य मन्दिरों में बालेश्वर मन्दिर के द्वारों पर मांगलिक प्रतीक–जल से भरा घट लिये मकर कच्छप पर आरूढ़ गंगा-यमुना हैं। शुकनास पर नृत्य मुद्रा में शिव हैं । पुष्टि देवी मन्दिर में अतीव सुन्दर महिषमर्दिनी हैं जो गले तक वस्त्रों से ढकी रहती हैं । पुष्टि देवी मंदिर तथा नव दुर्गा मन्दिर की निर्माण शैली एक ही है । वास्तुकारों ने दोनो को ही गजपृष्ठाकृति या वल्लभी शेैली का बनाया है । इस तरह के मन्दिरों में छत को हाथी की पीठ की तरह गोलाकार बनाते हैं ।
लेकिन अधिकांश मन्दिरों के गर्भगृह खाली हैं। इनकी प्रतिमाओं को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा स्थापित संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है।
इन मन्दिरों पर गुप्तकाल एवं उत्तर गुप्तकाल की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है । पैगोडा तथा देवदार की काष्ठ निर्मित छत तिब्बत तथा नेपाल की शेैली से साम्य रखती दृष्टिगोचर होती है । सम्भवतः तिब्बत तथा नेपाल से तीर्थ यात्रियों के आवागमन के कारण ही यह समरूपता जायी होगी ।
यहां से दर्शनीय हिमालय की गगनचुम्बी चोटियों नन्दा, त्रिशूल, परशुराम,चौखम्बा एवं नीलकंठ के भी दर्शन होते हैं ।