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    अल्मोड़ा नन्दादेवी मेले में नन्दा की पूजा एवं तन्त्र

शिरीष पांडे

ज्योतिष, तन्त्र और मन्त्र ये ऐसी तीन विद्यायें हैं, जिससे उत्तराखण्ड का जनजीवन और लोक संस्कृति काफी प्रभावित रही है। कत्यूरी और चन्द राजा तन्त्र विद्या में पारंगत माने जाते थे। देवी की पूजा युद्ध देवी के रूप में करने की परम्परा कत्यूरी और चन्दकाल में काफी प्रचलित रही है।

देवीशक्ति पूजा हेतु अभी भी इस क्षेत्र के कई परिवारो में विशिष्ट प्रकार के ऐपण से बनी चौकियाँ (यन्त्र) देवी से साथ देखने को मिलते हैं। कहा जाता है कि नवीं सदी में चांदपुर गढ़ी के राजा ने राजगुरू नौटियालों के गांव नौटी में नन्दादेवी के श्रीयंत्र को चबूतरे में भूमिगत कर सिद्धपीठ की स्थापना की थी।

अल्मोड़ा नन्दादेवी मेले में पूरा पद्धति अभी भी तान्त्रिक आधार पर चलती है।  राजा आनन्द सिंह जिनका स्वर्गवास सन 1938 में हुआ, तन्त्र विद्या में निपुण माने जाते थे। नन्दादेवी की पूजा पद्धति में स्वर्गीय आनन्द सिंह के बाद काफी परिवर्तन आ चुका है। आनन्द सिंह की मृत्यु के बाद तन्त्र शास्त्र की प्रसिद्ध पुस्तक चीनाचार में से कुछ अंश उतारकर पूजा की जाती है, जो मुख्यतः भगवती तारा की पूजा के लिए प्रयोग में लाई जाती है।

श्री कौशल सक्सेना ने एक लेख में लिखा है कि नन्दा प्रतिमाओं का पूजन  एवम् निर्माण पद्धति पूर्ण रूप से तान्त्रिक है। भगवती की पूजा तारा शक्ति के रूप में शोडषोपचार, पूजन, यज्ञ एवम् पशुबलि देकर की जाती है।

डा0 एम0पी0 जोशी एवम् गिरजा कल्याणम् पन्त ने एक संयुक्त लेख में चन्द वंषीय राजाओं की इष्ट देवी ‘नील सरस्वती’ एवम् ‘श्री अनिरूद्ध सरस्वती’ बताया है। इस अवसर जब पूजा की जाती है तो नन्दा भगवती का आह्नान ‘महिषासुर मर्दिनी’ के रूप में किया जाता है।

यहां पर फिर स्पष्ट कर देना उचित होगा कि गढ़वाल युद्ध के दौरान चन्द वंषीय राजा ने प्रतिज्ञा की थी कि विजयी होने के बाद वे नन्दा भगवती की पूजा अपने इष्ट देवी के समान करेंगे और दोनो की प्रतिष्ठा में समानता रखेंगे। कहते हैं कि गढ़वाल में बार-बार युद्ध में असफलता हासिल होने पर राजा बाजबहादुर चन्द ने देवी-नन्दा की पूजा तान्त्रिक पद्धति से श्री अनिरूद्ध सरस्वती के स्वरूप में की, तब वह युद्ध में विजयी हो सका। संभवतः कत्यूरी राजा भी श्री अनिरूद्ध सरस्वती के स्वरूप में नन्दा की पूजा करते हों। श्री अनिरूद्ध सरस्वती चन्द वंश के सेनापति श्री भौदास पन्त घराने की भी इष्टदेवी हैं, जिसकी पूजा पद्धति वे जानते थे। ऐसा लगता है कि गढ़वाल में जीत हासिल करने के बाद बाजबहादुर चन्द ने ज्योतिषों, तान्त्रिकों और विद्धान पुजारियों की सलाह पर तान्त्रिक पूजा की एक ऐसी पद्धति निकाली जिससे वह अपनी कुल देवी-तारा (नीलसरस्वती ) तथा नन्दा (महिषासुर मर्दिनी, अनिरूद्ध सरस्वती ) को बराबरी का दर्जा देकर पूरा कर सकं। तन्त्र विद्या में यह भी एक मिसाल है। इस पूजा पद्धति में दोनों देवियों को उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप पूजा जाता है।

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स्व शिरीष पांडे का यह आलेख नंदादेवी सन्दर्भ पुस्तिका वर्ष 1988  से साभार लिया गया है।

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