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हिलजात्रा

हिलजात्रा कुमाऊ क्षेत्र के सोर घाटी में मनाया जाने वाला महत्वपूर्ण उत्सव है। यह उत्सव प्रतिवर्ष भाद्र माह के शुक्लपक्ष में मनाया जाता है। यह पर्व यहां मनाये जाने वाले एक अन्य पर्व आँठू के अन्तिम दिन अथवा उससे एक दिन पहले मनाया जाता है। यह दिन गौरा एवं महेश्वर को विसर्जित करने का दिन है। हिलजात्रा वैसे तो सोर घाटी में उन स्थानों पर अधिक मनायी जाती है जहां गौरा-महेश्वर को काफी दिनों तक घरों में रखा जाता है। फिर भी कुमौड़, बजेठी, सेरी चनाली, देवलथल में इसका आयोजन अधिक प्रसिद्ध है।

ब्रजेन्द्र लुंठी

हिलजात्रा शब्द दो शब्दों का मिलन है। हिल शब्द कीचड़ के लिए प्रयुक्त होता है जबकि जात्रा का अर्थ है यात्रा । वर्षा के दिनों में जबकि खेतों में इतना अधिक पानी होता है कि खेतों में कीचड़ हो जाती है; यह आयोजन होता है। पुराने समय में इस यात्रा को हिलपानी कहा जाता था । इसके आयोजन के लिए आयोजनकर्ताओं को शासन को कर देना होता था।

हिलजात्रा कितनी पुरानी है, कहा नहीं जा सकता । लेकिन लोक मान्यता है कि राजा पिथौराशाही के समय में महर वंश के चार वीर पुरुष इस आयोजन को नेपाल से सोर में लाये थे। हिलजात्रा तब नेपाल में इन्द्रजात्रा के नाम से आयोजित की जाती थी । कुमाऊँ में हिलजात्रा का प्रारम्भ कुमौड़ गांव से माना जाता है।

लोकगाथाओं में कहा गया है कि काली कुमाऊँ के चार महर भाई बड़े प्रसिद्ध योद्धा थे । पिथौरागढ़ के पास एक बार जब ये भाई रुके हुए थे तब एक नरभक्षी शेर ने वहां आतंक मचाया | तत्कालीन राजा ने इस शेर  को मारने के लिए इनाम की घोषणा की | तब इन चारों भाइयों ने एंचौली पहुँचकर इस शेर को मार गिराया। एंचोली ही पिथौरागढ़ के पास का सबसे पुराना गांव माना जाता है।  इनकी बहादुरी को देख राजा ने इनको ससम्मान चंडाक बुलवाया और मुँह मांगा इनाम लेने के लिए कहा । इन चारों भाइयों में कुंवरसिंह कुरमौर सबसे बड़े थे । उन्होनें चंडाक में खड़ा होकर कहा कि यहां से जितनी भूमि मुझे दिखाई देती है वह मुझे दे दी जाये । इस तरह कुरमौर ने वडडा, नैनी सैणी, बिण ,कुमौड़ आदि गांव राजा से ले लिये।

ब्रजेन्द्र लुंठी

कुमौड़ का नामकरण कुरमौर के कारण ही हुआ। अन्य भाइयों चहज सिंह के नाम पर चैंसर, जगसिंह के नाम पर जाखनी, बड़सिंह के नाम पर वींण नाम पड़े ।

कुछ दिनों बाद महर बन्धु नेपाल यात्रा पर गये। वहां इन्द्रजात्रा में भैंसे का बलिदान किया जाता था। परन्तु जो भैंसा बलिदान होना था उसके सींग गर्दन के पीछे तक थे। अपने शौर्य एवं चातुर्य से महर बन्धुओं ने उस भैंसेको ऊँचे स्थान पर चढ़कर घास दिखाई । भैंसे ने जैसे ही घास खाने के लिए गर्दन ऊपर उठाई उन्होंने नीचे से गर्दन उड़ा दी । इस तरह बिना सींग काटे भैंसे का बलिदान हो गया। नेपाल का राजा इस चातुर्य से बहुत प्रसन्‍न हुआ। महर भाइयों के अनुरोध पर उसने इन्द्रजात्रा को कुमाऊँ में लाने की न केवल स्वीकृति दे दी अपितु इस अवसर पर काम आने वाले खैर लकड़ी के बने मुखौटे प्रदान किये जिन्हें इन्द्रजात्रा में प्रयोग में लाया जाता था।

इस तरह सबसे पहले हिलजात्रा का आयोजन कुमौड़ में हुआ । उसी वर्ष से हर साल आंठू में हिलजात्रा आयोजित की जाती है।

ब्रजेन्द्र लुंठी

हिलजात्रा का प्रारम्भ परम्परागत विधान से होता है। इसमें ग्रामीण महिलायें परम्परागत परिधानों से सज-संवर कर ब्रत-उपवास करके पंच अनाज बोती हैं। आंठू की शरुआत साधारणतः बिरूड़ा अष्टमी से होती है। हिलजात्रा का प्रारम्भ नृत्यों से होता है। लेकिन आम अवसरों पर होने वाले नृत्य नहीं हैं। इस दिन लकड़ी के मुखौटे पहनकर मुखौटों से हिरन-चित्तल बनाया जाता है। इसमें सब से आगे के आदमी के सिर से बंधी लकड़ी नाक के उपर से निकली रहती है दूसरी लकड़ी मुंह से दबाये रखनी पड़ती है। जबड़ो की गति से हिरन के सींग हिलते से लगते हैं। दूसरी लकड़ी से हिरन के सींग सदृश आकृति का रूप दे दिया जाता है। आदमी दस्ताने पहन कर हाथ में लाठियां लिये रहता की कमर में फंदा बनाकर दूसरा आदमी झुका रहता है। इसी क्रम से और आदमी भी होते हैं। तीन आदमियों की पीठ झुकने के कारण आकाश की ओर होती है। जबकि मुंह आगे जमीन की ओर हो जाता है। इस तरह हिरन का पृष्ठ भाग निर्मित हो जाता है। अन्तिम व्यक्ति के पूंछ बनायी जाती है जिसमें घंटी लगी होती है। यह पूरा आकार कपड़े से ढंका रहता है। झुके हुए आदमियों के अगल-बगल के आदमी चंबर डुलाते रहते हैं।

ढोल-नगाड़े की थाप पर जब पहला व्यक्ति नृत्य शुरू करता है तो पूरा हिरन गति में आ जाता है।

आयोजन के दिन हिलजात्रा के आयोजन स्थल पर विभिन्‍न वस्तुओं की बिक्री के लिये स्टाल लग जाते हैं। लोग अभिनय के लिए मुखौटे लेकर मैदान में पहुंचना शुरू कर देते हैं । ढ़ोल नगाड़ों के साथ उत्सव प्रारम्भ होता है। इसमें विभिन्‍न लोगों के अभिनय दशयि जाते हैं। कभी घास का घोड़ा बना कर उस पर सवार आता है, पुरुष स्त्रीवेष धारण कर खेतों में काम करने वाली महिला का अभिनय करते हैं। भालू, नाई, मछुआरा, बैलों की जोड़ी, जिसमें एक अड़ियल बैल रहता है, आदि का अभिनय किया जाता है। इनके बाद हिरण-चित्तल, फिर पुरुष स्त्रियों का वेश धारण कर गीत गाते हुए आते हैं।

हिमांशु साह अल्मोड़ा

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