पहाड़ की लोक संस्कृति में ज्यूंति व थापे को बेहद शुभ व मंगलमयी माना जाता है । इस क्षेत्र में महिलायें विभिन्न पर्वाें पर जलरंगों के संयोजन से दीवारों पर कई मनोहारी चित्रणेों को मूर्त रूप देती हैं जिन्हें ज्यूंति कहा जाता है। पुराने भवनों में जन्माष्टमी, दशहरा, नवरात्रि, दीवाली इत्यादि के अवसर पर महिलाओं द्वारा पूजाक़क्ष व घर के प्रमुख कक्ष की दीवारों पर पट्ट बनाने की सदियों पुरानी परम्परा को देखा जा सकता है जिनमें मुख्य रूप से देवी-देवताओं को विभिन्न स्वरूपों में चित्रित किया जाता था। इन्हें ज्यूंति मातृका पट्ट कहते हैं। इनमें देवता को मूर्त रूप देने के लिए भित्तीचित्र के रूप में दो आयामी चित्रणों में बनाया जाता है। सप्तवर्णी जल रंग व प्रतीक वाले इन चित्रणों में देवता विशिष्ट कें विविध गुणों को दीवार अथवा कागज के धरातल पर रूई औंर सींक की तूलिका से आकार दिया जाता है।
ज्यूंति मुख्य रूप से विवाह, नामकरण, छटी, यज्ञोपवीत संस्कार मे पूजी जाती है। आयताकार स्वरूप वाली ज्यूंति मे लाल, पीला व बैगनी रंग का इस्तेमाल होता है। हिमालय सदृश रेखाचित्र, बेलबूटे इत्यादि के अतिरिक्त नामकरण वाली संस्कार वाली ज्यूंति में तीन मात्रिकाऐं- महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी तथा गणेश, षोडष मात्रिकाऐं बनाई जाती हैं। अलग-अलग अवसरों पर बनने वाली ज्यूंति में अन्तर होता है। विवाह के अवसर पर भी एक विशिष्ट प्रकार की ज्यूंति बनाई जाती है। इनमें राधाकृष्ण बनाये जाते है।
कुछ समय पूर्व तक ज्यूंति का अंकन पूजाकक्ष की दीवारों पर गृह निर्मित रंगों से होता था। जिसके लिए लाल रंग बिस्वार में गुलनार मिला कर बनाते थे। पीले रंग के लिए बिस्वार में लड्डू पीला रंग मिलाया जाता था। बिन्दुओं के अंकन के लिए गुड़ व कोयले का प्रयोग किया जाता था। रूई लगे मालू के पत्ते का डंठल का प्रयोग ब्रुश के रूप में में किया जाता था।
ज्यूंति के अतिरिक्त दुर्गा थापा की अनुकृति को भी दीवारों पर बना कर इनमें देवी शक्तियों की स्थापना की जाती थी। बारह दलों के कमल दल से आवृत्त इसमें देवी दुर्गा को सिंह पर आरूढ दिखाया जाता है। पुण्यागिरी तथा दूनागिरी देवियां भी दिखाई जाती हैं। कृष्ण जन्माष्टमी पर भी इसी प्रकार के पट्ट बनाये जाते है। यह आलेखन मुख्यत- शाह व बा्रहमण परिवारों में बनाये जाते थे। परन्तु अब ये भी कागज पर मिलने लगे हैं।
कुछ लोग मानते है कि इस अंचल में ज्यूंति चित्रों पर सेन और पाली चित्रकला का प्रभाव पड़ा। इस शैली में अल्पनायें लाल,नीले,पीले काले व सफेद रंग से निर्मित की जाती है। आलेखनों पर बंगाल के सेन पाली शासन काल की बज्रयानी परम्परा का भी प्रभाव पड़ा है । कुछ पर हूण प्रदेश का भी प्रभाव है। बदलते परिवेश में ज्यूंति का अंकन कागज पर तैल रंगो से होने लगा है।
सदियों से चली आ रही यह विधा अब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। पुराने भवनों में परम्परागत रूप से बिस्वार से बनती ऐपण को पेंट से बनाने के चलन और अब स्टिकर वाले ऐपणों ने गहरी चुनौती दी तो अब ज्यूंति थापे की परम्परा को प्रिंटिंग तकनीकि ने।
अब भवन निर्माण की बदलती शैली व पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण लोक संस्कृति की इस विधा को बचाने की चुनौती पैदा हो गई है। सदियों से चली आ रही यह विधा अब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। पुराने भवनों में परम्परागत रूप से बिस्वार से बनती ऐपण को पेंट से बनाने के चलन और अब स्टिकर वाले ऐपणों ने गहरी चुनौती दी तो अब ज्यूंति थापे की परम्परा को प्रिंटिंग तकनीकि ने।
गांव घरों से ज्यूंति और थापे का अंकन गायब होता जा रहा है। अल्मोड़ा में भी पहले के दो ढाई सौ साल पुराने घरों में जगह-जगह दीवारों पर हाथ से बनाई ज्यूंति तथा थापे अक्सर दिखाई दे जाते थे लेकिन सीमेंट से निर्मित भवनों के निर्माण के चलन ने इन्हें पूरी तरह समाप्ति की ओर अग्रसर कर दिया है। नतीजा है कि नये बने घरों में बिस्वार से बने ऐपण तथा जल रंगों से दीवारों पर बनी ज्यूंति व थापे पूरी तरह समाप्त हो गये हं।