पर्वतीय क्षेत्र के पुराने पैदल यात्रा मार्ग पर जाने वाले यात्रियों को वीरान क्षेत्रों में नौ-नौ मील की दूरी पर पत्थर से बने हुए बिना दरवाजे के भवन सहज ही आकर्षित करते हैं। ये वे धर्मशालायें हैं जिनका प्रयोग पूर्व में पैदल यात्री रात्रि पड़ाव के लिए किया करते थे। नौलों, धारों अथवा नदियों के किनारे बने ये भवन पूर्व में इस ओर यात्रा के लिए आने वाले यात्रियों के लिए ही बने थे।
यह ज्ञात नहीं है कि पर्वतीय क्षेत्रों में धर्मशालाओं का इतिहास निश्चित रूप से कितना पुराना हैै। प्राचीन समय से ही राजा, सामंत तथा धनी व्यक्ति व्यापारियों, पथिकों तथा धर्म यात्रियों के लिए मुख्य यात्रा मागों पर पड़ाव या आश्रयों की व्यवस्था करते थे। यात्रियों के निवास के लिए धर्मशालाओं का निर्माण पुण्यकर्म समझा जाता था। धर्मशालाओं में आवास की व्यवस्था भी शासन, समाज व्यक्तिगत अथवा सार्वजनिक प्रयासों से होती रही। व्यक्तिगत रूप से पुण्य प्राप्त करने के लिए धर्मशालायें तीर्थाटन मार्गाें अथवा मंदिरों के पास बनवाई जाती थीं।
पर्वतीय क्षेत्र देव भूमि माने गये हैं । बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, जागेश्वर, बागेश्वर जैसे मान्यता प्राप्त तीर्थ इसी क्षेत्र में हैं। कैलाश मानसरोवर की यात्रा का भी यह प्रमुख मार्ग था। इसीलिए धार्मिक ग्रंथों में पर्वतीय क्षेत्रों के तीर्थाटन को भी पर्याप्त महत्व दिया गया। यहां तीर्थाटन की परम्परा अत्यंत पुरानी है तथा देश के अनेक भागों से तीर्थ यात्रियों के इस ओर आने के निश्चित प्रमाण मिलते हैं। स्थानीय व्यापारियों की तिब्बत और नेपाल से व्यापार की समृद्ध परम्परा भी थी इस कारण तिब्बत की ओर भी व्यापारिक काफिले चलते थे।
यहांँ मध्यकाल से पूर्व की धर्मशालाओं का वर्णन न तो साहित्य में उपलब्ध है न ही पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा इन पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। बागेश्वर मंदिर से प्राप्त 10वी शती के प्राचीन लेख से पता चला है कि तत्कालीन राजा मार्गाें के किनारे पथिकों के लिए पथशालाओं का निर्माण किया करते थे। पथशालाओं की व्यवस्था राजमार्गाे की व्यवस्था के लिए नियुक्त अधिकारी करता था। चंद राजाओं ने जोगियों के विश्राम के लिए मठ बनवाये थे परन्तु यह मठ जोगियों के स्थायी आश्रय थे अथवा केवल चतुर्मास अथवा यात्राकाल में प्रयोग किये जाते थे, कह सकना कठिन है। ऐसी जनश्रुतियाँं भी प्रचलित हैं कि सामन्तों द्वारा भी मठों का निर्माण किया गया था । परन्तु यह निश्चित है कि यात्रामार्गाें में पड़ाव की उत्तम व्यवस्था की जाती थी। चट्टी शब्द पड़ाव का प्रचलित नाम है। इसका प्रयोग यात्रा मार्गाे पर स्थायी पड़ाव के लिए होता है। बद्रीनाथ मार्ग पर हनुमान चट्टी एक महत्वपूर्ण पड़ाव रही हैै।
यात्रियों के विश्राम के लिए अभी तक जो सबसे प्राचीन आश्रय कुमाऊँं क्षेत्र में पाया गया है वह चम्पावत जनपद से प्राप्त एक आच्छादित चबूतरा है जो उस वन क्षेत्र से गुजरने वालों को रात्रि विश्राम के लिए आश्रय सुलभ करता होगा। लगभग बारहवीं शती में निर्मित इस चबूतरे को क्षेत्र में मढै़या कहा जाता है। यह मढ़ैया अब खंडहर के रूप में परिवर्तित होती जा रही है। मढ़ैया खेती खान से 14 किमी दूर खेतीखान-चम्पावत मार्ग पर विद्यमान नरियल ग्राम से लगभग तीन किमी0 की दूरी पर स्थित गढ़कोट-तोली ग्राम की सीमा पर है। इस मढ़ैया की रचना प्रसाधित पत्थरों से की गयी है। इसकी छत बारह अलंकृत स्तम्भों पर छायी गयी है। गुम्बदाकार छत के मध्य खिले हुए कमल की आकृति की पत्थर की चक्रिका स्थापित की गयी थी जो अब धराशायी हो गयी है। सपाट चबूतरे पर अलंकृत स्तम्भ आज भी विद्यमान हैं। इसमें मध्यवर्ती खम्बों के उपर घट पल्लव बनाये गये हैं।
उत्तर मध्यकाल की एक धर्मशाला गोलनासेरा में देवीधूरा के पास पाटी ग्राम से पांच किमी की दूरी पर मनकांडे-चैड़ाकोट में शिवजी का थान नामक मंदिर परिसर में है। यहां दो धर्मशाला थे। दो मंजिल वाली इन धर्मशाला का भूमितल साधारण दो भागों में बंटा हुआ है जबकि प्रथम तल में विशाल कक्ष बना हुआ है। दूसरी मंजिल पर पहुंचने के लिए बाँंयी ओर से रास्ता बना है। भवन की संरचना साधारण है। प्रकाश के लिए साधारण खिड़कियां बनी हैं। प्रवेश के लिए लकड़ी के दरवाजे बने हैं जो एकदम सादे और नक्काशी विहीन है। जागेश्वर में भी मंदिर से लगी एक प्राचीन विशाल धर्मशाला थी जो हाल ही में सौन्दर्यीकरण के चलते तोड़ दी गयी है। बमनसुआल मंदिर समूह मे भी ऐसी ही एक धर्मशाला है।
वर्तमान में जो धर्मशाला मिलते हैं वे दो ढा़ई सौ साल से ज्यादा पुराने नहीं हैं। इनकी संरचना स्थानीय कटों पत्थरों से हुई है जो प्रसाधित कर लगाये गये है। सामान्यतः ऐसी धर्मशाला मुख्य यात्रा मार्ग पर नौ-नौ मील के अन्तर पर बनायी गयी है। जिनसे प्रतीत होता है कि उस समय यात्रा मार्गाें पर निकले पथिक एक दिन में इतनी दूरी तय कर लेते होंगे। इन में कहीं-कहीं मात्र एक वर्गाकार अथवा आयताकार कमरा बना हुआ है तो कहीं इनमें आन्तरिक विशाल कक्ष तथा सामान्य पटाल वाली छत से आच्छादित बरामदा है। जो मेहराबदार तीन चार या पांच साधारण स्तम्भों पर आश्रित होता है। अलंकरण विहीन प्रवेशद्वारों के उपर वजनी पत्थर का पटाल रखा जाता था। छतें पटाल से आच्छादित की जाती थीं तथा कक्षों में दीपक रखने के लिए दीपाधार बनाये जाते थे। मुख्य कमरे के प्रवेशद्वार विशाल न बनाकर छोटे आकार के बनाये जाते थे। इनकी संख्या दो तीन चार या पांच तक हो सकती थी। अलग से रसोई बनाने का प्रचलन नहीं था।
फर्श बनाने के लिए भूमि को समतल कर उसमें कंकड़ कूट कर भरे जाते थे तथा उनके उपर भारी तथा मजबूत समतल पटाल करीने से जोड़ दिये जाते थे। पटालों के जोड़ों को गारे से मजबूती दी जाती थी।
मंदिरों को चढायी गयी धर्मशालायें प्रायः विशाल हुआ करती थीं। राजमार्गाें की धर्मशाला के विपरीत कई बार तो इनकी आकृति बाखली सदृष रेखाकार हो जाती थीं। यह धर्मशालायें दो मंजिली भी होती थीं। इन धर्मशालाओं में लकड़ी का भरपूर प्रयोग हुआ है। दरवाजा, खिड़कियों के अलावा दो मंजिल का फर्श इनमें इनमें पुराने भवनों की तरह कभी पाल का तो कभी पूर्णतः लकड़ी के तख्तों से बनाया जाता था। रेंलिग भी लकड़ी से ही निर्मित होती थी। इनमें विभिन्न अलंकरण भी सजाये जाते थे। जागेश्वर ,बागेश्वर आदि मंदिरों की धर्मशालाऐं ऐसी ही बनी थीं।
धर्मशालाओं की सुन्दरता के लिए कोई विशेष प्रयास किये गये हों, मालूम नही पड़ता। यदि दो मंजिल की धर्मशालाओं को छोड़ दिया जाये तो पूरे कुमाऊंँ में निर्मित धर्मशालाओं की संरचना में आश्चर्यजनक समानता है। लगता है कि धर्मशाला निर्माण के निश्चित नियम स्थापित हो गये थे। शिल्पी भी उन्हीं नियमों के आधार पर नया निर्माण किया करते थे न कि नित्य नये प्रयोग। सुदृढ़ता के उद्देष्य को मूल में रखने के कारण यात्रा मार्गाें पर मिलने वाली धर्मशालाओं में लकड़ी का प्रयोग नगण्य हुआ है। सुश्री माया ढ़करियाल के अनुसार भरनौल से प्राप्त एक शिलालेख में बताया गया है कि वहां प्राप्त धर्मशाला के पास पुष्प वाटिका तथा जल की व्यवस्था की गयी थी।
पिछले दो सौ वर्षों के अन्तराल में क्षेत्र में जिन श्रृखलाबद्ध धर्मशालाओं का निर्माण हुआ है उनके निर्माण में प्रमुख रूप से जसूलीदेवी सौक्याणी और बचीगौड़ का महान योगदान रहा है। भेाट क्षेत्र की वासी जसूली सौक्याणी और मुक्तेश्वर निवासी बचीगौड़ ने इस क्षेत्र में जगह-जगह धर्मशालायें बनवायीं जो आज भी मौॅजूद हैं। ये दोनेा ही कमिश्नर हैनरी रैमजे के समकालीन थे। इतिहासकार स्व0 नित्यानंद मिश्रा के अनुसार बचीगौड़ पेशे से ठेकेदार थे। नैनीताल की वर्तमान कचहरी इन्हीं के द्वारा बनाई गयी थी। कहा जाता है कि यदि मल्ली ताल को बसाने का मुख्य श्रेय मोती राम साह को जाता है तो तल्ली ताल के बाजार को बसाने का श्रेय बचीगौड़ को है। निसंतान बचीगौड़ अपनी आय का एक निश्चित हिस्सा बद्रीनाथ मंदिर को चढ़ाते थे। हल्द्वानी से बद्रीनाथ जाने वाले रास्ते में प्राचीन काकड़ीघाट-कर्णप्रयाग पैदल मार्ग पर उन्होंने कई धर्मशालायें बनवाई जो आज भी मौजूद है। हल्द्वानी के स्वराज्य आश्रम के बगल में बनी प्रसिद्ध धर्मशााला बचीगौड़ की धर्मशाला के नाम से ही जानी जाती है।
विद्वानों के अनुसार कैलाश मानसरोवर की तीर्थ यात्रा तथा पर्वतीय क्षेत्र के अन्य नगरों में यातायात की दुर्गम परिस्थितियों को सुगम बनाने के लिए दातों बूढ़ाराठ की जसूली नामक महिला ने अनेक धर्मशालायें बनवायीं। इन्हें सौक्याणी के धर्मशाला कहा जाता है। यह धर्मशााला अंग्रेज कमिश्नर रैमजे की पे्ररणा से बनवायी गयीं थीं।
जसूली दाताल अति समृद्ध विधवा थीं। उनके पुत्र का भी अल्प आयु में निधन हो गया था। इन्हे रैमजे द्वारा धर्मशाला बनवा कर समाजसेवा के लिए प्रेरित किया गया। उनके द्वारा बनवाई गयी डेढ़ सौ से अधिक धर्मशालायें अभी तक प्रकाश में आ चुकी हैं जिनमें चार से लेकर बारह तक कमरे बने हैं ।
जसूली सौक्याणी द्वारा बनवायी गयी धर्मशालाओं में अल्मोड़ा के नजदीक खीनापानी, कफडखान, बाडे़छीना, धारानौला, एनटीडी आदि की प्रसिद्ध धर्मशालायें है। जसूली दाताल द्वारा नेपाल में महेन्द्रनगर व बैतड़ी जिलों में भी भारी संख्या में धर्मशाला बनवाये गये थे।
लेकिन खेद का विषय है कि पूर्व की जटिल यातायात की परिस्थितयों को सुगम बनाने के लिए किये गये बचीगौड़ व जसूली दाताल के प्रयासों को भुला दिया गया है। अब नई पीढ़ी न तो इन दोनों के महान योगदान को जानती है न ही उनके द्वारा निर्मित धर्मशालाओं को खंडहर होने से बचाने के लिए कोई जनचेतना ही उपजी है।