कटारमल का सूर्य मंदिर-उत्तर भारत की मध्य कालीन वास्तुकृतियों में विशिष्ट स्थान रखता है। अल्मोड़ा नगर से 13 किमी की दूरी पर बसे कोसी कस्बे से डेढ़़ किमी0 की पैदल चढ़ाई चढ़ कर अथवा कोसी बाजार से लगभग दो किमी आगे से मोटर मार्ग से भी कटारमल पहॅुचा जा सकता है जहां एक टीले पर सूर्य मंदिर समूह स्थित है। इसे बड़ा आदित्य भी कहा जाता है।
कटारमल के सूर्य मंदिर का नाम उत्तर भारत के सूर्य उपासकों में ही नहीं अन्य मतावलम्बियों में भी बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जाता है। मध्यकाल की वास्तुकला और स्थापत्य के प्रतीक मूल मंदिर को आठवीं, नवी शती के मध्य बनवाया गया था। कुमाऊँ के सांस्कृतिक इतिहास में इस मंदिर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस क्षेत्र में कत्यूरियों का उदय एक शक्तिशाली राजवंश के रूप में हुआ। उन्होंने न केवल अपनी तलवार के बल पर एक विशाल राजवंश की नींव रख उसका विस्तार किया अपितु उन्हानें मूर्तिकला और देवालय निर्माण के प्रति भी अभूतपर्व रूचि प्रदर्शित की। जागेश्वर तथा बैजनाथ मंदिर कत्यूरियों के काल में ही बने जिनकी मूर्तिकला और मंदिर निर्माण शैली भी दर्शनीय है। उनके काल में सूर्य सहित विभिन्न सम्प्रदायों के अनेकों मंदिरों का निर्माण हुआ।
कटारमल का वर्तमान मंदिर कुमाऊँ के अन्य सूर्य प्रासादों की अपेक्षा ज्यादा विशाल, भव्य, आकर्षक और सुन्दर है। प्रतीत होता है कि मूल मंदिर का पहले भी जीर्णोद्धार करवाया गया था। पिछले दिनों भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा इन मंदिरों का पुनः जीर्णाेद्धार कार्य पूरा किया गया है ।
पूर्वामुखी इस मंदिर का निर्माण उत्तर भारतीय शैली में रेखा देउल श्रेणी का है जो जिसको तीन उभारो में बाटा गया है। मुख्य प्रासाद के चारों ओर चार छोटे मंदिर भी बनाये गये हैं। जगती पर स्थापित मुख्य मंदिर की संरचना को बहुत कम उभारों के साथ निर्मित गया है। मंदिर की बाह्य दीवारों पर न तो कोई अलंकरण ही बनाये गये हैं और न ही कोई प्रतिमा ही उत्कीर्ण है । प्रवेशद्वार की ओर की भित्तियों पर अवश्य देवकुलिकाओं का स्वरूप निर्मित कर उसके पाश्र्वाें में दो लघु मंदिर निर्मित किये गये हैं। मंदिर गर्भगृह तथा मंडप में विभक्त है। चार स्तम्भों पर आधारित बाहरी मंडप बहुत बाद की संरचना है । इसमें एक स्तम्भ पर राजा देवलदेव का उल्लेख है।
गुर्जर प्रतिहार शैली में निर्मित यह देवालय बारहवीं तेरहवी शती का बना प्रतीत होता है लेकिन वर्तमान मंडप से पूर्व भी आठवीं नवीं-शती का एक मंडप यहां पर रहा था जिसका एक स्तम्भ राष्ट्र्र्ीय संग्रहालय दिल्ली में सुरक्षित है। इस स्तम्भ के मध्य में नोकदार कनटोप पहने अभयमुद्रा में स्कन्दकुमार की भग्न प्रतिमा हैं। मंडप के नक्काशीदार कपाट पर शिव-पार्वती, लक्ष्मी-नारायण, भैरव तथा कीर्तीमुख दर्शाये गये हैं। मुख्य मंदिर के अतिरिक्त भी 44 छोटे मंदिर परिसर में हैं।
मंदिर के निर्माण में स्थानीय शिलाओं को काटकर प्रयोग किया गया है। मुख्य मंदिर के गर्भगृह में दीप प्रज्जवलन के लिए दीपाधार बनाये गये हैं। यहां बनाये गये एक मंच पर स्थित वट वृक्ष की काष्ठ सूर्य रूप में पूजी जाती है।
सम्पूर्ण मंदिर समूह का भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा जीर्णाेद्धार कर दिये जाने से अब यह स्थल पर्यटकों एवं श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। पूर्व में शिखर का आमलशिला सहित कुछ भाग टूट कर गिर गया था। मुख्य मंदिर के चारों ओर छोटे मंदिरों के हैं जिनमें कलात्मक अलंकरण है। भारतीय मूर्तिकला में अत्यल्प प्राप्त होने वाली ललितासन मुद्रा में गंगा भी यहां उत्कीर्ण हैं। छोटे मंदिरों को पुष्प, अर्धपुष्प तथा नक्काशीदार अलंकरणों से सजाया गया है।
गर्भगृह में रखे आस-पास के मंदिरोे की प्रतिमायें एवं टूटे कलात्मक भाग कला-सौन्दर्य एवं अभिव्यक्ति की दृष्टि से समृ़द्ध हैं । इनमें मुख्य रूप से स्थानक एवं विष्णु, लक्ष्मीनारायण, सूर्य, नृसिंह, कुबेर, मातृकायें, गणेश, महिषासुरमर्दिनी आदि हैं। सूर्यदेव की मनभावन प्रतिमा यहां का मुख्य आकर्षण है जिसकी विशेषता उसका शास्त्रीय ग्रंथों अनुरूप सप्त अश्वधारी एवं एक चक्रीय रथ सहित सारथी अरूण से सुसज्जित होना है। सूर्यदेव चोलक और उपानह से भूषित हैं ।
मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है। सम्पर्क मार्ग तथा दर्शनार्थियों के लिए की गई अन्य व्यवस्थाओं से अब मंदिर तक पहुंचना सहज और सरल हो गया है। पौष माह में स्थानीय प्रयासों से मेले का भी आयोजन किया जाता है। निश्चित रूप से यह सूर्य मंदिर दर्शनीय तो है ही भारतवर्ष की गिनी चुनी सांस्कृतिक धरोहरों में से भी एक है जिसको देखने दूर-दूर से पर्यटक और श्रद्धालु आते हैं।