गणनाथ का मंदिर अत्यंत प्राचीन है । यह मंदिर अल्मोड़ा–कौसानी मार्ग पर रनमन नामक गांव से मात्र ७ किमी की दूरी पर है तथा अल्मोड़ा – ताकुला बागेश्वर मोटर मार्ग पर ताकुला से कुल 8 किसी दूरी पर है । गणनाथ का मंदिर प्राचीन गुफा खोह अथवा कन्दरा के अन्दर स्थित है । कुमाऊँ में जागनाथ, बागनाथ की ही तरह गणनाथ की भी बहुत मान्यता है ।
इस मंदिर को प्रतिष्ठा एवं इष्ट देव के रूप ने मान्यता चंद राजवंश के समय में मिली। इसका श्रेय चंद राजाओं के गुरू श्री बल्लभ उपाध्याय को है ।
वरिष्ठ शोधकर्ता चन्द्र शेखर तिवारी कहते हैं- श्री बल्लभ उपाध्याय ने ही मंदिर की सेवा के लिए वैष्णव सम्प्रदाय के मानगिरी एवं निर्मल गिरी को इस मठ का महंत नियुक्त किया। श्री बल्लभ उपाध्याय भी मृत्युपरंत इसी स्थान पर रहे।
इन्हीं के वंशजों द्वारा आज भी गणनाथ मंदिर में पूजा उपासना एवं अर्चना का कार्य संभाला जाता है। कहा जाता है कि जागनाथ की भूमि १४४ वर्गमील क्षेत्र में फैली थी। इसकी सीमायें पूर्व में जटेश्वर, उत्तर में गणनाथ, पश्चिम में त्रिनेत्र एवं दक्षिण में रामेश्वर लिंग प्रमाण हैं । स्कन्द पुराण के मानस खंड में भी गणनाथ का महात्म्य है ।
गोरखा शासन काल में गोरखों ने गणनाथ को अपनी छावनी बनाया था । जहाँ पर यह छावनी थी, वह गोरखा की गढी के नाम से जानी जाती है। अल्मोड़ा पर अधिकार की योजना के अन्तर्गत गणनाथ पर अधिकार के लिए २३ अप्रेल सन् १८१५ को ब्रिटिश सेना की टुकड़ी ने कोसी नदी की छोर से गणनाथ को प्रस्थान किया था जिसमें गणनाथ चोटी के नजदीक विनायक स्थल नामक मैदान पर गोरखा सेनापति हस्तिदल की सेना के साथ उसका युद्ध हुआ ।
गणनाथ के प्रति गोरखों की भी असीम आस्था थी। कुमाऊँ के इतिहास में बद्रीदत्त पांडे ने उल्लेख किया है कि ब्रिटिश सेना से यु़द्ध से पहले गोरखा सेनापति हस्तिदल ने विजय की कामना के साथ गणनाथ को तीन बार अशर्फियां चढ़ाईं परन्तु प्रयत्न करने पर भी अशर्फियां नीचे गिर पड़ीं। इसे अपशकुन समझा गया। हस्तिदल ने कहा- क्या जाने, देवता क्या नाराज भयो, भेंट मान्ने ना। इस यु़द्ध में गोरखों की हार हुई। युद्ध में सेनापति हस्तिदल मारा गया । गोरखा सरदार जैथोरा भी अपने बत्तीस साथियों सहित इस युद्ध में काम जाया । बाद में ब्रिटिश टुकड़ी का इस स्थान पर आधिपत्य हो गया ।
गणनाथ का शिवलिंग जिस कन्दरा में स्थित है लगता है कि वह चूना पत्थर की बनी है । एक बड़े बट वृक्ष की जड़ से निरन्तर दूधिया पानी टपकता रहता है । कुछ लोग इसे अमृत सदृश मानते हैं ।
चंद राजाओं ने सतराली के सात गाँव थापला,पनेर गांव,कोतवाल गांव, कांडे, लोहना, खाड़ी व ताकुला इन मंदिरों को गूँठ में चढ़ाये थे । कुछ अन्य गांव जहां से नाली उगाही जाती है वे हैं – पाटिया, कसून, औकाली, तल्लीगांव, सूपाकोट आदि । इन गाँवों से मंदिर के लिए हर फसल पर अभी भी नाली उगाही जाती है ।
श्री चन्द्र शेखर तिवारी के अनुसार सत्राली के गांवों से मंदिर की सेवा के लिए उगाही गई नाली के रूप में जो राशि अथवा अनाज प्राप्त होता है उसके तीन भाग किये जाने की परम्परा रही है। पहला भाग गणनाथ के भोग-पूजन, दूसरा भाग दीन अभ्यागतों के लिए तथा तीसरा भाग मंदिर के जीर्णाेद्धार इत्यादि कार्यो में खर्च किया जाता है।
यह स्थान असीम उर्जा देने वाला और कोलाहल से दूर नैसर्गिक सुषमा से ओतप्रोत है । गुफा के एक ओर सुंदर प्रपात है । मंदिर में प्रधानलिंग के अतिरिक्त महिषासुरमर्दिनी, एक मुखी शिवलिंग, भैरव, गणेश, सूर्य के साथ-साथ बैकुंठ विष्णु तथा अनेक खंडित देव प्रतिमाऐं भी हैं । विष्णु प्रतिमा की पादपीठ पर एक लेख अंकित है ।
इसी परिसर में श्री बल्लभ उपाध्याय का समाधि मंदिर भी बना है। यद्यपि इस स्थान पर अब अनेक नये निर्माण हो गये हैं लेकिन प्रतीत होता है कि पूर्व में यहां एक अथवा अनेक प्राचीन मंदिर भी रहे होंगे जिनकी खंडित प्रतिमाऐं यहां रखी हुई हैं।
शिवरात्री, होली, एव कार्तिक पूर्णिमा को यहां हजारों लोग दर्शन करने आते हैं । बैकुंठ चतुर्दशी को निसंतान महिलाऐं हाथ में दीपक लेकर रात्रि भर जागरण करती हैं। मंदिर में घंटिया चढ़ाने की परम्परा है । मुख्य मंदिर से पहले विनायक गणेश तथा दो किमी० ऊपर भगवती मल्लिका का मंदिर है । चैत्र की नवरात्रियों मे भी यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है ।
सुंदर आलेख। मंदिर के नजदीक गोरखाओ की छावनियों के आवास एवम नजदीक मे नौले उपलब्ध हैं। २-३ कि.मी. की दूरी पर माई का थान भी है।