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स्वामी विवेकानंद की स्थायी विरासत का प्रतीक है काकडी़घाट

स्वामी विवेकानंद की आध्यात्मिक यात्रा में काकडी़घाट का विशेष स्थान है। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ उन्होंने एक ऐसी गहन अनुभूति का अनुभव किया जिसने ब्रह्मांड के बारे में उनकी जिज्ञासा का स्पष्ट समाधान किया। अभी भी काकडी़घाट का शांत और पवित्र वातावरण भक्तों और आगंतुकों को प्रेरित करता रहता है तथा स्वामी विवेकानंद की स्थायी आध्यात्मिक विरासत बन चुका है।

वर्ष1886 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के निधन के बाद उनके युवा शिष्यों ने एकांत साधना के लिए पूरे देश में अनेक स्थानों को अपनी चुना। उनमें से एक नरेंद्र थे जिन्हें बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाना गया। अपने गुरु भाई और मित्र गंगाधर से प्रेरित होकर नरेंद्र ने अपनी तपस्या के लिए हिमालय के शिवालिक क्षेत्र को चुना। हालाँकि जुलाई 1889 में अल्मोड़ा जाने की उनकी प्रारंभिक योजना में देरी हुई लेकिन आखिरकार उन्होंने अगस्त 1890 में अखंडानंद के साथ यात्रा शुरू की।

अगस्त 1890 में विवेकानंद और अखंडानंद काकडी़घाट पहुँचे। स्वामी विवेकानंद की यह तपोस्थली काकडी़घाट में कोसी और सिरौता नदियों के संगम पर स्थित है जहां इस क्षेत्र का प्रसिद्ध शमशान भी है । यह स्थान हल्द्वानी- अल्मोड़ा मोटर मार्ग पर गरमपानी से कुछ ही आगे बांयी ओर पड़ता है जहां सड़क से भी चिता भूमि और प्रसिद्ध शिवालय दिखाई देता है। इस शिवालय को कर्कटेश्वर महादेव कहा जाता है।

पूरा काकडी़घाट क्षेत्र पर अनेक इतिहास प्रसिद्ध संतों की साधना स्थली रहा है। काकडी़घाट में कर्कटेश्वर मंदिर से थोड़ा सा आगे ही सोमवारी बाबा का प्रसिद्ध आश्रम है।  चंद राजाओं के गुरू हर्षदेवपुरी ने इस स्थान पर जीवित समाधि ली थी। सोमवारी बाबा ने अपने जीवन के कई वर्ष इस स्थान पर बिताये थे। नीम करोली महाराज ने यहां हनुमान जी के विग्रह की स्थापना की थी। अब इस स्थान को सुन्दर बना कर बाबा नीम करोली ट्र्ष्ट ने अत्यंत ही आकर्षक बना दिया है।

कर्कटेश्वर महादेव शिवालय परिसर में ही तपस्वियों ने रात बिताने का फैसला किया। विवेकानंद ने कोसी नदी के निर्मल जल में स्नान किया और नदी के किनारे पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान के लिए बैठ गए और गहन ध्यान में लीन हो गए। जब वे चेतना में आए तो उन्होंने अखंडानंद से कहा-

गंगाधर! मैं अभी अभी अपने जीवन के सबसे महान क्षणों में से एक से गुजरा हूँ। यहाँ इस पीपल के पेड़ के नीचे मेरे जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक का समाधान हो गया है । मैंने स्थूल जगत और सूक्ष्म जगत की एकता पा ली है । शरीर के सूक्ष्म जगत में वह सब विद्यमान है जो स्थूल जगत में वि़द्यमान है ।

मैंने एक परमाणु के भीतर पूरे ब्रह्मांड को देखा है।

गहन ध्यान में लीन होकर उन्होंने अनुभव किया सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत एक ही योजना पर निर्मित हैं। समूचे ब्रह्मांड और अणु की संरचना समान है। उन्होंने अपने गुरू भाई और साथी स्वामी अखंडानंद से कहा कि उनके जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक का समाधान इस वृक्ष के नीचे हुआ है।

पीपल का पेड़ जिसके नीचे विवेकानंद ने ध्यान किया उनके आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक बन गया। हालाँकि मूल पेड़ 2014 से आगे जीवित नहीं रह सका लेकिन इसकी विरासत को संरक्षित करने के प्रयास किए गए। 15 जुलाई 2016 को उसी स्थान पर विवेकानंद ज्ञान वृक्ष के नाम से पुराने पवित्र पीपल वृक्ष का क्लोन पौधा लगाया गया। रोपण स्थल को मजबूत बाहरी बाड़ से सुरक्षित किया गया है और पौधे के चारों ओर एक ट्री गार्ड लगाया गया है।

15 जुलाई 2016 को काकडी़घाट में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण किया गया । इस कार्यक्रम में गणमान्य लोगों ने भाग लिया और काकरीघाट में विवेकानंद के आध्यात्मिक अनुभव के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की। कार्यक्रम का आयोजन रामकृष्ण कुटीर अल्मोड़ा और विवेकानंद सेवा समिति काकरीघाट द्वारा संयुक्त रूप से किया गया।

 कोसी और सुयाल नदियों के संगम पर काकडी़घाट में स्थित पीपल का पेड़ जिसके नीचे स्वामीजी को विलक्षण आध्यात्मिक अनुभव हुआ सभी के लिए पवित्र हो गया।

यह वह स्थान है जिसने विवेकानंद को अपनी शांत सुंदरता से मोहित कर लिया था। यह वही स्थान है जहां विवेकानंद ने कोसी नदी में स्नान करके खुद को पवित्र करने के बाद गहन ध्यान लगाया था। काकडी़घाट का शांत और पवित्र वातावरण आज भी भक्तों और आगंतुकों को प्रेरित करता है तथा विवेकानंद की स्थायी आध्यात्मिक विरासत की याद दिलाता है।

स्मारकों को बचाएं, विरासत को सहेजें
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