अल्मोड़ा नगर में चंद वंश का शासन सन् 1790 ई0 में गोरखों के आगमन के साथ ही समाप्त हो गया। गोरखा शासन भी अपने अत्याचारों के कारण यहाँ अधिक लम्बे समय तक नहीं चल पाया और अंग्रेजों ने अल्मोड़ा नगर में सन् 1815 में गोरखों को परास्त कर दिया। इसके साथ ही इस पहाड़ी नगर में अंग्रजों के खूनी पंजे मजबूत होते चले गये।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि गोरखों के अत्याचार से दुखी अल्मोड़ा के नागरिकों ने अंग्रेजों का स्वागत ही किया हो। अन्य लोगों के अलावा नगर में एक मुस्लिम संत भी थे जिन्होंने अंग्रेजों के अपवित्र कदमों का खुलेआम विरोध किया। अंग्रेजों ने बाद में इस संत को फांसी पर चढ़ाने का आदेश भी दिया था। इस संत का नाम है हुसैनअली शाह। दुःख का विषय यह है कि इस संत की बलिदान गाथा के सम्बन्ध में इतिहास की किताबें मौन हैं और इतिहासकारों ने भी अंगे्रजो से प्रतिरोध करने की इस घटना को महत्व देने कि कोई कोशिश नहीं की। बाबा हुसैनअलीशाह की मजार आज भी अल्मोड़ा से दो किमी. दूर, अल्मोड़ा-बागेश्वर मार्ग पर धार की तूनी नामक स्थान पर बनी हुई है। भारी संख्या में हिंदू-मुस्लिम सहित सभी धर्मों के लोग अपनी मुरादें लिए हुए बाबा के दरबार में फरियाद करने पहुँचतें हैं।
बाबा के सम्बन्ध में जो भी जानकारी है वह दर्जनों लोगों से लिए गये साक्षात्कार पर आधारित है। इनमें कई ऐसे लोग हैं जिनको बाबा के बलिदान के सम्बन्ध में भले ही कुछ न मालूम हो लेकिन उनकी मुरादें इस पवित्र मजार पर आने से पूरी जरूर हुई हैं ।
प्राचीन समय से ही इस शांत नगर मे संतों का आगमन ईश्वर की आराधना के लिए होता रहा है। ऐसे ही एक संत सैयद कमालुद्दीन कफ्काजी की मजार अल्मोड़ा नगर के दुगालखोला नामक स्थान पर है। बताया जाता है कि सैयद कमालुद्दीन कफ्काजी उर्फ कालू सैयद बाबा पूर्व ईरान के कफ्काजी क्षेत्र से अल्मोड़ा आये थे। कहा जाता है कि बाबा कालू सैयद ने ही दोनों भाइयों हजरत हसन अली शाह और हुसैनअली शाह को स्वप्न में आदेश दिया था कि अल्मोड़ा में मेरी मजार है, उसकी हिफाजत करो। तभी दोनेां भाई हसनअली शाह और हुसैनअली शाह अल्मोड़ा आये। उन्होंने कालूसैयद बाबा की मजार को खोजा और उसकी देखभाल के लिए अल्मोड़ा में ही ठहर गये।
जब अंग्रेजों ने सिटौली की ओर से अल्मोड़ा में प्रवेश करने की कोशिश की तब बाबा हुसैनअली शाह की गद्दी तुन के ऐतिहासिक पेड़ के नीचे लगी हुई थी । अंग्रेजों के अपवित्र कदमों से अल्मोड़ा नगर की रक्षा के लिए बाबा ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग किया और तोपखाने के कई लोग अंग्रेजों से अलग हो गये। काफी प्रयास के बाद अंग्रेज जब सिटौली पर अधिकार करने में सफल हुए तो उन्होंने तुन के जिस वृक्ष के नीचे बाबा की गद्दी लगी थी उसी पर बाबा को फांसी चढ़ाये जाने का आदेश दिया ।
बताते हैं फांसी के पहले बाबा ने तुन के इस वृक्ष के नीचे थोड़ी देर आराम करने की इच्छा व्यक्त की। वह पेड़ के नीचे चादर ओढ़ कर लेट गये। काफी देर तक जब वह नहीं उठे तो चादर हटाकर देखी गयी लेकिन तब तक बाबा नश्वर शरीर छोड़ चुके थे। तुन के उसी वृक्ष के नीचे बाबा की मजार बना दी गयी।
अंग्रेजों से नगर को बचाने के लिए बाबा की प्राणों की आहुति देने की गाथा अपने आप में अनूठी मिसाल है। बाबा की फाँसी के बाद ही यह स्थान दार की तुन अर्थात तुन का वृक्ष जिसपर फाँसी हुई, के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
तुन के उस वृक्ष की नीचे जड़ से एक दूसरा तुन का ही वृक्ष पैदा को गया । अतीत का साक्षी बना यह पेड़ मजार पर अब तक अपनी शाखाओं से छाया कर रहा है। इसके नीचे गोरखाली भाषा में एक पत्थर रखा है जो इस महान संत के बलिदान और देशभक्ति को बताता है। इतिहासकार स्व0 नित्यानंद मिश्रा का मानना था कि बाबा को फाँसी देने की इस घटना का संबन्ध रूहेला सरदारो द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध जनमत जाग्रत करने के लिये कुमाऊँ क्षेत्र में भेजे गये विश्वस्त व्यक्तियों पर अंग्रेजों के शक के कारण हुई। बाद में कई रूहेला सरदारों को फांसी गधेरा नैनीताल में भी फांसी पर लटकाया गया।
बाबा की मजार अब एक लघु कक्ष के अन्दर है। पहले इसका स्वरूप एैसा नहीं था। बाद में श्री जमीर अहमद ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। पिछले वर्षाे में भी मजार एवं आंगन में जीर्णाेद्वार का काम हुआ है। अब मजार के पीछे एक भव्य मस्जिद का निर्माण भी कर दिया गया है।
कई लोगों ने बताया है कि सिटोली के जंगल में रात के समय बाबा लोगों को छोड़ने सड़क तक आये हैं। विपदा में फंसे उस ओर से गुजरने वाले लोगों को बाबा रास्ता दिखाकर लुप्त हो जाते हैं। मजार के पास रहने वाले कई लोगों ने बताया है कि काली सफेद खिचड़ी, दाढ़ी, नीला लम्बा सा कुर्ता पहने गोरा सुर्ख रंग, लम्बे कद बुजुर्ग को कई लोगों ने इस ओर रात में देखा है। कई अन्य व्यक्तियो ने भी इस बात की पुष्टि की है।
अल्मोड़ा की मुस्लिम समाज और संस्कृति के जानकार मौलाना शब्बीर बताते हैं-बाबा की मजार के बगल में ही दो कब्र और भी हैं। इनमें एक कब्र फैज मोहम्मद ताजिर की है जो सन् 1911 में बनायी गई दूसरी कब्र डा0 महमूद की है। ये सन् 1915 में बनी। कैन्ट में बाबा के बड़े भाई हजरत हसनअली शाह की मजार भी है।
अल्मोड़ा जल संकट से हमेशा त्रस्त रहा है। एक पुराने बुर्जुग चचा पीर अली जल संकट से त्रस्त अल्मोड़ा में वर्षा न होने पर बच्चों को लेकर अपनी पालतू बकरियों के साथ रोजा रखकर मजार पर जाते थे और गिड़गिड़ा कर दुआ माँगते थे। उनकी दुआ कबूल होती थी और घनघोर वर्षा हो जाती तथा लोग भीगते हुए अपने घरों को वापस होते।
अब इतिहासकारों की जिम्मेदारी बनती है कि वे देशभक्ति की इस गाथा की प्रामाणिकता को पुष्ट करें और इतिहास की अनकही हुई दास्तानों को सामने लायें।
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