यूँ तो कुमाऊँ का कण-कण सौन्दर्य से परिपूर्ण है लेकिन कुछ स्थल ऐसे भी हैं जहा जाकर मन सम्मोहन की सीमा में पहुंच जाता है । पिथौरागढ जनपद के गंगोलीहाट कस्बे का काली मंदिर इनमें से एक है । गंगोली कस्बे की खूबसूरत घाटी में बना हाट कालिका मंदिर सदियों से श्रद्धालुओं तथा साधकों को श्रद्धा से वशीभूत करता रहा है। कुमाऊँ रेजीमेंट की तो यह आराध्य देवी भी हैं ।
गंगोलीहाट पहुँच कर मंदिर तक उतरने के लिए वैसे तो पैदल रास्ता है लेकिन अब जीप जाने के लिए सड़क बना दी गयी है । यह शक्ति पीठ सातवीं-आठवीं शती में निर्मित हो सकता है। सातवीं सदी ईसवी में पर्वतीय क्षेत्र कत्यूरी राजाओं के शासन के अन्तर्गत था जिनके द्वारा अनेक देव प्रासादों का निर्माण किया गया । कहा जाता है कि जब जगद्गुरू शंकराचार्य गंगोलीहाट जाये तो उन्होंने शक्तिपीठ को कीलित कर उसे ढक दिया। वर्तमान में यह शक्तिपीठ भूमिगत है तथा उसे ताम्रपत्र से आच्छादित कर दिया गया है ।
लोकोक्ति है कि यह शक्ति पीठ मां महिषासुर मर्दिनी की है । जनश्रुति है कि देवी और महिषासुर नामक राक्षस का युद्ध इसी स्थान पर हुआ था । जिसमेँ रक्तबीज, चंडमुंड नामक राक्षस मारे गये थे। स्थानीय बुजुर्गाे ने बताया है कि रात्रि से कई बार देवी अपने गणों के साथ शोभायात्रा के रूप में मंदिर में ढ़ोल नगाड़ों के साथ दृष्टव्य होती हैं ।
गंगोलीहाट की यह शक्ति पीठ जागृत शक्ति पीठों से मानी जाती है । गंगोलीहाट के मणकोटी राजा अपनी राज्य की सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए हाट कालिका का अक्सर पूजन सम्पन्न करवाते थे । कुमाऊँ रेजीमेंटके जवानों के लिए यह देवी शौर्य और साहस प्रदान करने वाली देवी हैं। इन रणबांकुरों में देवी विजयदायिनी रणचंडी के नाम से पूजित हैं ।
पाकिस्तान के साथ 1971 की लड़ाई के बाद गंगोलीहाट के कनारागांव निवासी सूबेदार शेर सिंह के नेतृत्व में गंगोलीहाट आई कुमाऊँ रेजीमेंट की सैन्य टुकड़ी ने मंदिर में महाकाली की मूर्ति की स्थापना की। सेना द्वारा स्थापित यह मूर्ति मंदिर की पहली मूर्ति थी। इसके बाद 1994 में कुमाऊँ रेजीमेंट ने ही मंदिर में महाकाली की बड़ी मूर्ति चढ़ाई। अपनी श्रद्धा को व्यक्त करने के लिए कुमाऊँ रेजीमेंट द्वारा कई भव्य द्वार निर्मिति किये गये हैं ।
कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध में बर्मा समुद्र सीमा से देवी द्वारा सहायक बन संकटग्रस्त जवानों को अभयदान दिया गया था । बताया जाता है कि इस घटना के बाद कुमाऊनी जवानों द्वारा चांदी का एक विशाल छत्र और सिंहासन मंदिर में चढ़ाया गया था । मंदिर की बाहरी दीवार पर उमा-महेश आदि की प्राचीन प्रतिमाएं दृष्टिगोचर होती हैं । मुख्य प्रतिमा माँ काली की है जो मंदिर के अन्दर है तथा श्यामवर्णी प्रस्तर से निर्मित है। गर्भगृह में रात्रि में देवी के शयन हेतु एक पलंग भी है ।
हर अष्टमी को ही यूँ तो देवी उपासना काअपना महत्व है लेकिन चैत्र और कुवांर की अष्टमी को यहाँ मेले का आयोजनहोता है । इसमें श्रद्धालु अपनी श्रद्धा को व्यक्त करने और मनौतियां मांगने यहां आते हैं।
मुख्य पूजन ब्राहमण परिवारों द्वारा ही सम्पन्न होता है लेकिन पूजन इत्यादि व्यवस्थाओं का भार रावल ठाकुरों द्वारा सम्पन्न होता है । श्रद्धालु अपनी श्रद्धा के अनुसार भोग लगाने के लिए आते हैं ।
पहले देवी का भोग सामिष और निरामिष दोनों ही प्रकार से लगाया जा सकता था । प्रायः मनोतियां पूर्ण होने पर अठ्वार दिया जाता था । अठ्वार के अन्तर्गत सात बकरों और एक भैंसे का बलिदान किया जाता था । कईं वार पूरा का पूरा गांव भी अठ्वार लेकर आता था ।
गंगोली हाट की कालिका पर क्षेत्रवासियों की अपार श्रद्धा है । सभी सामाजिक कायों-ज़न्म विवाह आदि संस्कारों के अवसर पर शुभ की कामना से कालिका का पूजन किया जाता है । बताया तो यह भी गया है कि जल संकट के समय निकटवर्ती ग्रामों के निवासी मंदिर के बगल में स्थित जाह्नवी नौले से जल का कलश लाकर ढ़ोल नगड़ों सहित देवी को अर्पित करते हैं ।
मंदिर के पास बाजार से उतरने वाले रास्ते पर कई अन्य प्राचीन मंदिर भी हैं जिन्हें राम मंदिर कहा जाता है । इनमें विष्णु को प्रधानता देकर उनकी पूजा सम्पन्न की जाती है । मंदिर लगभग १०वीं शती ई० मेँ निर्मित जान पड़ते हैं । इन मंदिरों को संरक्षण की दृष्टि से भारतीय पुरातत्व सर्वक्षण विभाग द्वारा संरक्षण में ले लिया गया है ।
श्री बद्रीदत्त पांडे ने कुमाऊँ के इतिहास में लिखा है कि काली देवी के मंदिर की जड़ में पाताल गंगा है जिसमें एक नदी गुफा के अन्दर बहती है । विष्णु मंदिरों से थोडी ही दूर एक प्राचीन नौला है जिसे जाह्रनवी का नौला कहते हैं । इसमें एक प्राचीन लेख उल्कीर्ण है । नौले की आन्तरिक रथिकाओं में स्थानक सूर्य स्थापित हैं । स्थानीय लोगों द्वारा इस नौले को जाह्नवी गंगा ही माना जाता है जिसमें गुप्त गंगा से पानी आता है ।
हाटकालिका मंदिर में लटकी हजारों घंटियां और प्रतिदिन उमड़ने वाले श्रद्धालुओं का सैलाब मंदिर के प्रति आस्था और श्रद्धा का जीवंत प्रमाण है ।