यद्यपि उत्तराखंड के सर्वाधिक देवालय कुमाऊँ के अल्मोड़ा -पिथौरागढ़ जनपदों में बिखरे हैं और उनकी वास्तु शैली तथा कलात्मकता की पर्याप्त चर्चा भी हुई है फिर भी इस जनपद के अनेक सुन्दर एव प्राचीन देवालयों की सम्पूर्ण जानकारी अभी तक विद्धत समाज को नहीं हो सकी है । नारायण काली मंदिर भी इसी तरह के हैं ।
अल्मोड़ा से १३ किमी.दूर नारायणकाली ग्राम के मंदिर स्थानीय पाषाण खंडो द्वारा काकडी गधेरे के दहिनी तट पर निर्मित किये गये है। पर्वतो के मध्य मनोरम घाटी में स्थित इन मंदिरों तक पहुंचने के लिये अल्मोड़ा पिथौरागढ़ मार्ग पर स्थित दलबैंड नामक स्थान से पश्चिम दिशा में काकड़ी नामक छोटी जलधारा के साथ साथ मात्र 3किमी चलना पड़ता है। यहां के दो प्रमुख देवालय क्रमशः नारायण मंदिर और काली मंदिर कहलाते हैं । यहां पर बावन छोटे और कुछ बडे पाषाण निर्मित देवालयों का एक समूह है । इनमें से साधारण वास्तु शिल्प लिये शिव मंदिर में गर्भगृह का दर्शनीय प्रवेशद्वार पत्रशाखा एवं मणिबंध शाखा से सजाया गया है। ।
शाखा के दायें एवं बाये पाश्र्वों में एक-एक स्त्री प्रतिमायें दर्शनीय हैं । सम्भवतः इस रूप में गंगा-यमुना को निरूपित किया गया है ।
इस मंदिर समूह का मुख्य मंदिर काली मंदिर कहलाता है जिसका पुनरूद्धार किया गया है । जीर्णोद्धार में प्राचीन मंदिर के पाषाणखंडो एवं स्तम्भों का उपयोग किया गया है । इसे घट-पल्लव, शिवलिंग युक्त रथिकाओं से सज्जित छोटी रथिकाओं , कीर्तीमुख, अर्धपद्म एवं घट-पल्लव युक्त गढ़नो द्वारा सज्जित किया गया है ।
मंदिर समूह के सबसे उत्तर में जलधारा के किनारे निर्मित है नारायण मंदिर । भूमितल के समानान्तर विन्यास में वर्गाकार गर्भगृह के सामने अन्तराल, मण्डप और चार स्तम्भों पर आधारित मण्डप तीन दिशाओ में खुला हुआ है । ऊँचे चबूतरे पर निर्मित इस मंदिर की जगति को ऊँचा कर, इसके ऊपर तीन सादी गढ़नों द्वारा वेदीबन्ध बनाया गया है। मण्डप से सम्बधित भाग में वेदीबंघ, खुर, कुुम्भ और चन्द्रशाला हैं। जंघा भाग में उद्गमयुक्त रथिकाऐं बनायी गयी हैं । जिसके ऊपर सादी क्षैतिज पट्टियों से विभाजित फॉंसणा शैली का रेखा शिखर शोभायमान है । शीर्ष पर चन्द्रिका, आमलसारिका एवं काष्ठ निर्मित छत्र सुशोभित है । मण्डप एवं अर्धमंडप की छत नवनिर्मित हैं ।
मंदिर के गर्भगृह, अन्तराल और मण्डप के वितान सादे हैं । पूर्वाभिमुख प्रवेश द्वार तीन सादी शाखाओं द्वारा सज्जित है । गर्भगृह में मूल देवता के रूप में स्थानक विष्णु को स्थान दिया गया है । अनेक पूर्ण एवं खंडित पाषाण प्रतिमायें भी यहाँ रखी हुई हैँ। काल क्रम के अनुसार इसका निर्माण भी दसवीं शती का प्रतीत होता है ।
मंदिर स्थल के चतुर्दिक बिखरे कीर्तीमुख, घटपल्लव, आमलसारिका युक्त पाषाणखंड, पत्रशाखा एवं स्तम्भ अलंकरणयुक्त प्रवेश द्वारों के खंड और प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष यहां विद्यमान मंदिरों के अतिरिक्त अन्य प्राचीन मंदिरो के उपस्थित रहे होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हंै, जलधारा के उस पार प्राचीन मंदिरों के पाषाण पटों से निर्मित दो छोटे मंदिर भी इसका समर्थन करते हैं । समीपवर्ती खेतों से मिलने वाले प्राचीन मिट्टी के पात्रों के टुकडे़ यहां प्राचीन आवास स्थल होने का आभास कराते हैं ।