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ऐतिहासिक है अल्मोड़ा का रामशिला मंदिर

अल्मोड़ा नगर के अति प्राचीन देवालयों में रामशिला मंदिर का स्थान पहला है। अल्मोड़ा की बसासत के दूसरे चरण के अन्तर्गत राजा रूद्रचंद के कार्यकाल में वर्ष 1588-89 में एक नये अष्ट पहल राजनिवास का निर्माण नगर के मध्य में करवाया गया था जो मल्ला महल कहलाता था। इसी मल्ला महल के केन्द्र में रामशिला मंदिर समूह विद्यमान है।

रनीश गुरंग

वर्तमान के संरचनागत निर्माण से लगता है कि अन्य भवन संरचनाओं के अतिरिक्त यहां स्थापित देवालयों का निर्माण मूल योजना में किया गया था। देवालय निर्माण के स्थान पर पूर्व एवं पश्चिम में क्रमशः भैरव तथा भगवती मंदिरों का निर्माण किया गया था तथा पानी के संग्रहण के लिए व्यवस्था भी की गई। बाद में राजा बाजबहादुर चंद द्वारा वर्ष 1671 में गढ़वाल से लाकर नंदादेवी विग्रह को यहां स्थापित किया गया था।

रनीश गुरंग

चंद राजाओं ने अपने राजनिवास में स्थापित इन देवालयों में तीन बार स्वर्ण निर्मित नंदा प्रतिमाओं को अर्पित किया ।

नन्दादेवी की मूर्तियां, जो पूर्व में मल्ला महल के देवी मंदिर में थीं, अंग्रेजो के अल्मोड़ा में अधिकार के एक वर्ष उपरान्त 1816 ई0 में तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल द्वारा उद्योतचन्देश्वर मन्दिर में स्थानान्तरित कर दी गईं। भैरव के विग्रह को भी महल की सीमा से बाहर स्थानान्तरित कर दिया गया। मल्ला महल को गोरखा शासन में नन्दादेवी किला भी कहा जाता था।

रनीश गुरंग

जैसा कि विदित ही है राजा रूद्रचंद द्वारा मल्ला महल (जिलाधिकारी कार्यालय) में स्थित रामशिला मन्दिर समूह के तीन मंदिरों का निर्माण किया गया था। ऊॅंचे चबूतरे पर निर्मित तीन मन्दिरों में से मध्य में स्थित देवालय सर्वाधिक प्राचीन है। मूलरूप में इस मन्दिर के तीन द्वार बनाये गये थे। मुख्य द्वार पूर्व तथा अन्य दो द्वार दक्षिण एवं उत्तर की ओर खोले गये थे। कालान्तर में दक्षिण द्वार खुला रखा गया तथा दूसरे दोनों द्वार बन्द कर दिये गये। मुख्य द्वार के शिखर के मध्य एक शिला पट्ट विद्यमान है। जिसके ऊपर गजसिंह की प्रतिमा मंदिर के समीप पड़ी हुई है। मुख्य देवालय के पूर्व तथा पश्चिम की ओर बने देवालय पार्वतेश्वर मंदिर के भी परवर्ती हैं। इनमें से एक देवालय पश्चिमाभिमुख तथा द्वितीय देवालय दक्षिणाभिमुख है। ये सभी देवालय नागर शैली में बनाये गये हैं। इनकी बाह्य भित्तियों पर विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमायें उकेरी गई हैं। मंदिर में प्रस्तर से निर्मित युगल चरण चिन्ह स्थापित हैं जिन्हें भगवान श्री राम के चरण चिन्ह की मान्यता है।

रूद्रचंद द्वारा स्थापित देवी मंदिर को ही नंदादेवी मंदिर कहा जाता था। वर्गाकार निर्माण वाले इस मंदिर के पूर्वामुखी प्रवेश द्वार के उत्तरंग में हाथियों द्वारा अभिषेक करवा रही गजलक्ष्मी का अंकन है। बाह्य भाग साधारण गढ़नों से युक्त है। इसमें जलचर अंकित हैं। दक्षिणामुखी द्वार में भी चतुर्मुखी गणेश का अनुचरों सहित अंकन है। अलंकरण के लिए पद्म पुष्प का चयन किया गया है। दाहिने पाश्र्व में सिंहवाहिनी दुर्गा बनायी गयी हैं। पश्चिम की ओर इस मंदिर की बाह्य दीवार पर सबसे महत्वपूर्ण अलंकरण किया गया है जिसमें नव दुर्गाओं को प्रदर्शित किया गया है।

रनीश गुरंग

पुरातत्वविद डा0 चन्द्र सिंह चौहान का कथन है कि राजा उद्योतचंद के कार्यकाल में दिये गये दानपत्रों में नवदुर्गाओं का वर्णन उपलब्ध है। उन्होंने इन्हें नंदादेवी, पातालदेवी, स्याहीदेवी, बानड़ी देवी, जाखनदेवी, कसारदेवी, त्रिपुरा सुन्दरी, उल्का देवी एवं नाइल देवी कहा है। उत्तर दिशा में राशिचक्र का प्रदर्शन नवग्रहों के माध्यम से किया गया है। इनके मध्य में अग्रपूज्य गणेश का अंकन है। गर्भगृह में भी नवदुर्गाओं का अंकन किया गया प्रतीत होता है। इस क्षेत्र में मिलने वाले प्राचीन मंदिरों के वितान की तरह यहां भी वितान को कमल पुष्प से अलंकृत किया गया है। जंघा व शिखर को विभाजित करने के लिए पट्टिका बनाई गयी है। कभी यह मंदिर परम मांगलिक गजसिंह आभूषण से सजाया गया था। लेकिन अब गजसिंह अलग पड़ा है। मंदिर के शिखर पर आकाश लिंग है।

रनीश गुरंग

पुरातत्वविदों का अनुमान है कि इस मंदिर समूह के रामशिला मंदिर के मूल मंदिर के स्थान पर पुनः निर्माण राजा उद्योतचंद द्वारा करवाया गया था। इसमें श्री राम की चरण पादुकाओं को स्थापित किया गया था। इसी के नाम से समूचा मंदिर रामशिला मंदिर कहलाता है। दक्षिणाभिमुखी इस मंदिर के प्रवेश द्वार के उत्तरंग में भी अन्य मंदिरों की भांति गजलक्ष्मी स्थापित हैं। प्रवेशद्वार कृष्ण की प्रतिमा से सज्जित है। यहां पर कुछ अन्य प्रतिमाऐं भी हैें। परन्तु मूल मंदिर के स्थान पर विद्यमान वर्तमान मंदिर बाद का प्रतीत होता है।

यहां निर्मित भैरव मंदिर भी साधारण मंदिर अलंकरणों से सजाया गया है। जिसके जंघा भाग में दो रथिकायें एवं प्रवेश द्वार बनाये गये हैं। साधारण विन्यास वाले इस मंदिर के द्वारपाल हनुमान हैं।

मंदिर में प्रवेश के लिए मूलरूप से तीन द्वार बनवाये गये थे लेकिन न जाने क्यों इनमें से उत्तर एवं दक्षिण दिशा के द्वारों को बंद करवा दिया गया। पश्चिम दिशा के द्वारों पर कुछ सादी तो कुछ अलंकृत द्वार शाखायें बनी हैं। इनके अधोभाग में मकर मुख बनाया गया है।

शोभित सक्सेना

मंदिर का एक अन्य आकर्षण जंघा भाग में बनी रथिकायें हैं जिनमें रखी प्रतिमाऐं भैरव एवं अवधूत शिव की होने का अनुमान डा0 चन्द्र सिंह चौहान द्वारा लगाया गया है। उत्तर दिशा की ओर बनी रथिकाऐं खाली पड़ी हैं। कोनों की ओर शार्दूल बनाये गये हैं। शिखर भाग की ओर बनी अलंकृत पट्टी में भी रथिकाऐं बनायी गयी हैं। मध्य की कुलिका में सम्भवतः चैत्य नमूना बनाया गया है। चैत्रमास की शुक्लपक्ष की नवमी को यहां काफी श्रद्धालु दर्शन करने आते है।

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