प्रागैतिहासिक मानव के कदम ज्यो-ज्यों सभ्यता की ओर की बढे उसकी पहली नजर लकड़ी पर पड़ी जो अपनी प्रकृति के कारण मानव आश्रयों के अभिप्राय गढ़ने के लिए कहीं ज्यादा उपयुक्त थी। ज्यों-ज्यों मानव का कला और अलंकरणों के प्रति झुकाव बढता गया उसने कालान्तर में अपने आवास में लकड़ी का प्रयोग कर उन्हें भव्य रूप देना प्रारम्भ किया । बाद में तो काष्ठ कला ने एक विधा का ही रूप ले लिया ।
शिल्पसूत्र और वृहत्संहिता स्थापत्य की जानकारी देने वाले प्राचीन ग्रंथ हैं जिनमें भवन के लिए प्रयुक्त की जाने वाली काष्ठ के लिए वृक्ष को धराशायी करने, काष्ठ कर्म के लिये चौखट इत्यादि को तैयार करने की विस्तृत जानकारी दी गई है।
पर्वतीय क्षेत्रों के ग्रामीण परिवेश में आज भी पुराने दरवाजे और खिड़कियां जिनके उपर महीन नक्काशी की गई है, मौजूद हैं। कुमाऊँ मंडल के अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ ,चम्पावत तथा बागेश्वर इस कला में अति समृद्ध हैं। पर्वतीय क्षेत्र के प्राचीन मंदिरों में छत्र तथा बिजौरा निर्माण करने की परम्परा अति प्राचीन है। इन बिजौरों की शैली तथा गवाक्षों की शैली में पर्याप्त साम्य है।
इस क्षेत्र में भवन निर्माण तथा बाह्य संरचना में काष्ठ का अलंकरण के लिए व्यापक उपयोग हुआ है। नक्काशी क लिये लकड़ी प्रायः बिना लीसा निकाले चीड़, तुन या देवदार की ही प्रयोग की जाती थी। पवि़त्रता तथा दीर्घायु के कारण देवदार का प्रयोग भवनों के काष्ठ अलंकरणों में तथा तुन और चीड़ का प्रयोग सामान्य रूप से भवन के सौन्दर्य वृद्धि के लिए भी होता था। स्थानीय भवनों में खिड़कियां, दरवाजे के अतिरिक्त कभी-कभी दूसरी मंजिल पर जाने वाली उपर की सीढ़ी और फर्श भी लकड़ी के तख्तों का ही बनाया जाता था। दो मंजिले भवनों के फर्श को भी तख्तों से छाँव कर उन पर मिट्टी की पाल बिछाई जाती थी ।
मकान के चाख या बाह्यकक्ष में प्रवेश करने के लिए बना प्रवेश द्वार खोली कहलाता है । खोली की संख्या भवन की विशालता के आधार पर एक से अधिक भी हो सकती है । यह प्रायः तीन से साढे तीन फुट चौड़ी तथा सात या आठ फिट ऊँची हो सकती है । प्रवेश द्वार के मुख्य स्तम्भ द्वारकखाम कहलाते हैं । इसके ऊपर की चौकोर शहतीर को जो प्रायः २०से २५ सेमी. तक चौड़ी हो सकती हैं, पटाव कहते है । पटाव के बाहय परिकर पर देव आकृतियां उत्कीर्ण की जाती हैं । अधिकांश आकृतियां इस पटाव पर उत्तीर्ण वर्गाकार उभार वाले हाशिये के अन्दर होती हैं । वर्गाकार खंडों की संख्या प्रायः विषम होती है, यदि सम संख्या में खंड बनाये जाते है तो अन्दर की ओर के खंड देवााकृतियों से सजे होते हैं । इधर-उधर फूल एवं बेलबूटे बनाकर इन पैनलों को भव्य रूप दिया जाता है ।
मंदिरों के ललाटबिम्ब की तरह यहां भी भवन के प्रवेश द्वार के शीर्ष पर परम मांगलिक गणेश स्थान पाते हैं। पटाव का उपरी हिस्सा जिस कम चौड़ी काष्ठ की बल्ली से जुड़ा होता है उसे गल्तकरमशाल कहते हैं। इसे इस प्रकार से जोड़ दिया जाता हैैं कि उनके जोड़ सामान्यता दिखाई नहीं देते । इस पर अलंकृत अथवा सादे तोड़े लगाये जाते हैं। कभी कभी विभिन्न पशु-पक्षी सदृश तोड़े लगाये जाते हैं। भवन के अन्दर के शेष द्वार म्वाल कहलाते हैं । इन पर खोली की अपेक्षा अलंकरण कम होते हैं । नमूनों के जोड़ भी आपस में बारीकी से मिल जाते हैं।
खोली की लम्बवत संरचना को कटाव देकर पट्टियों में बंटा जाता है । दरवाजे के आकार के अनुसार इसमें भारी वजन के द्वारक खाम (द्वारस्तम्भ) लगाने के लिए ऐसा तना छांटा जाता है जिसकी मोटाई पर्याप्त हो तथा वह मजबूत कपाटों को संभाल सके। लम्बाई के अनुसार इसको सात तक लम्बवत, पाट्टियों में तराश दिया जाता है । दीवार से सटी पट्टी को कई बार पत्रवल्लियों से खचित किया जाता है। अन्तरंग कटावों को साठ अंश तक अन्दर की ओर काटा जाता है। इनको भी पत्रावलियों से अलंकृत किया जा सकता है । द्वारकखाम को मध्य में ऊपर की ओर मेहराब से जोड़ कर सजाया जाता है । द्वारक खाम में नीचे की ओर मांगलिक प्रतीक घड़े को पत्र पुष्पों से सजा कर घट-पल्लव बनाया जाता है । कई बार घट-पल्लव कंधे की ऊँचाई तक भी बनाये जाते हैं । दरवाजों का जुड़ाव देहली और पटाव में छेद कर लकड़ी की एक विशिष्ट शैेली में किया जाता है जिसमें लोहे के कब्जों का अभाव होता है ।
दरवाजे से जुड़ी काष्ठ धुरी का कार्यकरती है । पटाव दीवार के अन्दर द्वारक खाम को आधार देने का कार्य करता है इसलिए अन्दर की ओर यह दो फिट तक चौड़ा हो सकता है। पूरा पटाव एक ही शहतीर का बना होता है । इसके ऊपर के किनारे से मिले हुए स्थान पर चिडिंयों के घोंसले बनाने के लिए जगह छोड़ी जाती है । गल्तकरमशाल को अलंकृत नहीं किया जाता । तोड़े यदि अलंकृत किये जाते हैं तो उनमें विभिन्न पशु पक्षियों की आकृतियां निरूपित की जाती हैं । इनमें हाथी, घोड़े, मोर, तोता, नाग अथवा कई बार व्याघ्र प्रमुख हैं जो देखने में. ऐसा लगता हैं जैेसे अन्दर की बल्लियों का हिस्सा ही तोड़ो में बदल गया हो, कपाट काफी भारी होते हैं । इनमें कभी सादे तो कभी पुष्प लतायें, राजपुरुष, महिलाऐं, शस्त्रधारी योद्धा, हनुमान, गणेश, अश्व, गज, सिंह, युगल तोते, मछली, दशावतार आदि अंकित किये जाते हैं ।
बाहय गवाक्ष या खिड़कियां श्रंखला में बनायी जाती हैं । ये अलग अलग भागों में विभक्त होती हैं। अधिकाश्ं खिड़कियों का नीचे का एक तिहाई भाग बन्द रहता है । यदि यह भाग बन्द नहीं होता तो गवाक्ष छाजा कहलाता है । यह सूर्य पथ के क्रम से रहता है । ऊपर की शेष संरचना द्वार अथवा खोली से साम्य रखती है । खिड़कियों की महराबें अर्धचन्द्राकार हो सकती हैं । इनको भी पत्र पुष्पों के अतिरिक्त देवआकृतियों से अलंकृत किया जाता है । मेहराबें कई टुकड़ों में बनाकर ऊपरी चौखट से इस प्रकारसे जोड़ दी जातीं है कि उनके जोड़ भी आपसे में दिखाई नहीं देते। मकान का वितान भी अलंकृत करने की परम्परा रही है।
भवन में न केवल बाहर की ओर अपितु अन्दर का सौन्दर्य निखारने के लिए बैठक इत्यादि में भी गवाक्ष की प्रतिकृतियां बना कर उन्हें सुन्दर व सजीव बनाया जाता था। इनमें मत्स्यावतार, वाराह अवतार, सिंहवाहिनी दुर्गा,गदाधारी हनुमान, गुलदस्ता, अष्टकोणीय यंत्र इत्यादि बनाये जाते थे।
अल्मोड़ा नगर के पुराने भवनों में भी काष्ठशिल्प के यह दुर्लभ नमूने मौजूद हैं। विवेकानंद वि़द्यामंदिर के भवन में वाराहअवतार का अंकन किया गया है। कई जगह नृसिंह अवतार व मोदक धारण किये गणेश हैं। गणेश के दोनों ओर अन्य देवता भी बनाये गये हैं। नगर में तोड़े सर्वाधिक गजरूप, अश्वरूप तथा नाग अथवा पक्षियों की आकृति के बनाये गये हैं। राजकीय संग्रहालय में प्रदर्शित खोली में राम लक्ष्मण को स्कन्धों पर बैठाये गये हनुमान दर्शनीय हैं। कहीं-कहीं हाथियों से युक्त दीपाधार के आधार स्तम्भ काष्ठ कला की बारीकी को दर्शाते हैं। मकान का वितान भी अलंकृत करने की परम्परा रही है।
मल्ली बाजार के अनेक घरों में काष्ठ शिल्प का यह स्वरूप विशेष रूप से उभरा है। श्री मदन लाल साह एडवोकेट के खजांची मोहल्ले में स्थित भवन की बारीक काष्ठ नक्काशी को देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। स्व0 ब्रजराज साह के रघुनाथ मंदिर के समीप के भवन की आन्तरिक व बाह्य काष्ठ सज्जा भी दर्शनीय है। श्री गोपाल साह के गंगोला मोहल्ला भवन की बैठक में काष्ठ निर्मित भव्य सज्जा तथा सड़क की ओर निकली छत की कारीगरी आज भी संजो कर रखी गई है। वितान को पैनल लगाकर पत्रपुष्प तथा बेलों से सजाया गया है। इसी के समीप श्री दिनेश लाल साह गंगोला मोहल्ला के भवन का आन्तरिक कक्ष तथा खिड़कियों के पटों पर की गई बेहतरीन नक्काशी भी प्राचीन काष्ठ कारीगरों के हुनर और दक्षता को प्रदर्शित कर रही है।