पिथौरागढ जनपद का यह प्रसिद्ध देवालय बेरीनाग के निकट थल नामक स्थान से डेढ़-दो किमी. की दूरी पर अल्मियां नामक गांव में स्थित है । कभी यह परम्परागत शिल्पियों का गाँव भी रहा है । इसी गाँव के मध्य में स्थित एक जल प्रपात है जिसे भेलियाछींट कहा जाता है । प्रपात के नजदीक ही वर्षो पूर्व बना एक हथिया देवाल है जिसके सम्बन्ध में किवदंती है कि इस अदभुत शिल्प को निर्मित करने वाले शिल्पी के हाथ राजा द्वारा कटवा दिये गये थे ।
यह सम्पूर्ण देवालय एक ही विशाल चट्टान पर गढ़ा गया है । सम्भवतः इस प्रकार का एक चट्टानपर गढ़ा गया यह देवालय कुमाऊँ में अकेला ही है ।
वाचिक कथाओं में कुमाऊँ के एक ऐसे राजा और उसके चाटुकार सामंतों का विवरण उपलब्ध है जिसने एक बूढ़े शिल्पी से अपनी कला तृष्णा को शान्त करने के लिये अद्भुत देवालय बनवाना चाहा, एक प्रज्ञावान शिल्पी ने अपनी जाति के गौरव ओैर सम्मान के लिये यह चुनौती स्वीकार कर ली लेकिन जब यह भव्य देवालय बन कर तैयार हुआ तब चाटुकार सामंतों के कहने से शिल्पियों के उस मुखिया का एक हाथ कटवा दिया गया जिसने इस देवालय का निर्माण किया था ।
लेकिन शिल्पी का शिल्प समाप्त न हुआ । इस शिल्पी के हाथ का बनाया एक नौला भी चम्पावत के पास आज भी मौजूद है जिसे एक हाथ के शिल्पी द्वारा अपनी लड़की की मदद से तैयार किया गया था । इस नौले को एक हथिया नौला कहा जाता है ।
एक हथिया देवालय की तलछंद योजना में गर्भगृह, अन्तराल, मण्डप निर्मित किये गये हैैं । गर्भगृह और अन्तराल की आन्तरिक दीवारें सादी हैं, उन पर कोई अलंकरण नहीं उकेरा गया है । मूल देवता के रूप में यहां चट्टान को काटकर बनाया गया शिवलिंग है । दो स्तम्भों और दो भित्ति स्तम्भों पर आधारित मण्डप पश्चिम दिशा में मंदिर तथा दक्षिण, पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर दीवारों से वेष्ठित नहीं हैं । भीतर की ओर से अन्तराल और गर्भगृह का अलग से विभाजन नहीं है । देवालय में मण्डप के सामने अभिषेक जल के निकास हेतु व्यवस्था की गयी है ।
भूमितल से लम्बवत विन्यास में सामान्य प्रासाद पीठ पर निर्मित वेदीबन्थ एक सादी पट्टी द्वारा प्रदर्शित क्रिया गया है । इसके उत्तरी भाग में दो भागों में प्रणाल निर्मित कर जल निकास का प्रावधान रखा गया है । जंघा और शिखर को अलग-अलग तथा स्पष्ट रुप से दर्शाने के लिये अपेक्षाकृत बाहर की और निकले छाद्य तथा एक सादा अन्तरपत्र निर्मित दिया गया है । शिखर नागर शेैली का त्रिरथ शिखर है । इसके कर्ण तीन-तीन भूमि आमलकों द्वारा विभाजित हैं । आमलसारिका को प्रायः स्पर्श सा करता हुआ शिखर के उभार युक्त मध्यवर्ती भद्रभाग का शीर्ष मंदिर को लतिन शैली का सिद्ध करता है! शीर्ष पर सामान्य ग्रीवा के ऊपर चन्द्रिका सुशोभित है ।
अन्तराल पर निर्मित सादी शुकनास पर प्रदर्शित गज-सिंह का मुख खंडित है । शुकनास दोनों में एक सादे अन्तरपत्र द्वारा दो भागो में विभक्त है । मंदिर का पूर्वाभिमुख प्रवेशद्वार सादा है । वर्गाकार कुम्भिका पर आश्रित मण्डप के स्तम्भ नीचे चैकोर फिर वृत्ताकार और शीर्ष पर आमल सारिका से सुशोभित हैं । शैली और कालक्रम के आधार पर मंदिर १०वीं शती में निर्मित जान पड़ता है ।