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हरेला पर्व : सुघड़ हाथों की करामात हैं – डिकारे

कुमाउनी जन जीवन में भित्तिचित्रों के अतिरिक्त भी महिलाएँ अपनी धार्मिक आस्था के आयामों को माटी की लुनाई के सहारे कलात्मक रूप से निखारती हैं। हरेला के त्योहार पर, जो प्रतिवर्ष श्रावण माह के प्रथम दिवस पड़ता है, बनाये जाने वाले डिकारे सुघड़ हाथों की करामात हैं जिसमें शिव परिवार को मिट्टी की आकृतियों में उतार कर पूजन हेतु प्रयोग में लाया जाता है।

हेमंत जोशी

डिकारे शब्द का शाब्दिक अर्थ है–प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग कर मूर्तियां गढ़ना। स्थानीय भाषा में अव्यवसायिक लोगों द्वारा बनायी गयी विभिन्न देवताओं की अनगढ़ परन्तु संतुलित एवं चारु प्रतिमाओं को डिकारे कहा जाता है। डिकारों को मिट्टी से जब बनाया जाता है तो इन्हें आग में पकाया नहीं जाता न ही सांचों का प्रयोग किया जाता है। मिट्टी के अतिरिक्त भी प्राकृतिक वस्तुओं जैसे केले के तने, भृंगराज आदि से जो भी
आकृतियां बनायी जाती हैं, उन्हें भी डिकारे सम्बोधन ही दिया जाता है।

हरेला का त्योहार समूचे कुमाऊँ में अति महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक माना जाता है। इस पर्व को मुख्यतः कृषि और शिव विवाह से जोड़ा गया है। हरेला, हरियाला अथवा हरकाली हरियाला समानार्थी हैं। देश धनधान्य से सम्पन्न हो, कृषि की पैदावार उत्तम हो, सर्वत्र सुख शान्ति की मनोकामना के साथ यह पर्व उत्सव जैसा ही मनाया जाता है।

हेमंत जोशी

पुराणों में कथा है कि शिव की अर्धांगिनी सती ने अपने कृष्ण रूप से खिन्न हो हरे अनाज वाले पौधों को अपना रूप देकर पनः गौरा के रूप में जन्म लिया। इसी कारण से शिव विवाह के अवसर पर अन्न के हरे पौधों से शिव पार्वती का पूजन किया जाता है।

डिकारे की मूल सामग्री सोंधी सुगन्ध वाली लाल चिकनी मिट्टी है। कपास मिलाकर इसे कूटने के बाद चावल के घोल का लेप किया जाता है। तब प्राकृतिक रंगो से विभिन्न अंग प्रत्यंग बनाये जाते हैं। शिव को नील वर्ण से तथा पार्वती को श्वेत वर्ण से रंगने का प्रचलन है।

रनीश एवं हिमांशु साह

यह कोई निश्चित नहीं है कि डिकारे अलग-अलग बनाये जायें अथवा सामूहिक। न ही यह निश्चित है कि डिकारों में शिव-पार्वती आदि के अलावा इनके परिवार के कौन-कौन सदस्य बनाये जायें। गणेश को प्रायः इनके साथ बनाने का प्रचलन है जो कलाकार की अपनी क्षमता पर निर्भर करता है। पूजा के उपरान्त इनको जल में प्रवाहित करने की भी यदाकदा परम्परा है।

दीपा लोहनी, हल्द्वानी

हरेला की परम्परा के अनुसार अनाज ११ दिन पूर्व ऐपण से लिखी रिंगाल की टोकरी में बोया जाता है। हरेला बोने के लिए पांच या सात प्रकार के बीज जिनमें गेहूँ, जौ, सरसों, मक्का, गहत, भट्ट तथा उड़द लिये जाते हैं। यह अनाज पांच या सात की विषम संख्या में ही प्रायः बोये जाते हैं। बीजों को बोने के लिए मंत्रोच्चार के बीच शंख ध्वनि आदि से वातावरण को अनुष्ठान जैसा बनाया जाता है। इनको घर के देव स्थान में रखकर प्रातः और संध्या को जल भी अर्पित किया जाता है। इन टोकरियों को अंधकार में रख दिया जाता है जिससे पूर्व फल फूल डिकारों को बीच में रखकर महिलाएँ पूजन अर्चन करती हैं। इस अवसर पर हरकाली की आराधना कर विनय की जाती है कि वे खेतों को सदा धन-धान्य से भरपूर रखने की कृपा करें। खलिहान कभी खाली न हों तथा आराधना करने वाले की प्रार्थना सुनकर उसके दुःखों की दूर करने की कृपा करें।

संक्रान्ति के अवसर पर परिवार का मुखिया इन अन्न के पौधों को काट कर देवताओं के चरणों में अर्पित करता है। हरेला पुरुष अपनी टोपियों में, कान में तथा महिलाएँ बालों में लगाती हैं। घर के प्रवेश द्वार में इन अन्न के पौधों को गोबर की सहायता से चिपका दिया जाता है ।

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