आकाश में दिखाई देने वाले ज्योति पिंड के रूप में सूर्य की उपासना का क्रम वैदिक काल से चला आ रहा है । सूर्य और उसके विविध रूपों की पूजा उत्तर वैदिक काल से पल्लवित होती रही है। वेदोत्तर काल से इसका और भी विस्तार हुआ । गुप्तकाल और परवर्ती साहित्य से ज्ञात होता है कि सूर्य उपासकों का एक पृथक से सम्प्रदाय था । कवि मयूर भट्ट द्वारा लिखे सूर्य शतक को पूर्व मध्यकाल की ही रचना माना जाता है और बहुत आदर दिया जाता है । भविष्य पुराण से उल्लेखित कथा के अनुसार कृष्ण के जामवंती से उत्पन्न पुत्र साम्ब ने सबसे पहले चन्द्रभागा नदी (चिनाब) के तट पर मूल स्थान (वर्तमान मुलतान) में इरान से मगों को लाकर सूर्य मंदिरकी स्थापना की थी। इस मंदिर को हवेेनसाग ने भी देखा था ।
सूर्य प्रतिमाओं का प्राचीनतम विवरण वृहत्संहिता में उपलब्ध है । उसके पश्चात विष्णु पुराण, विश्व कर्मशिल्प, भविष्य पुराण, मत्स्यपुराण अग्निपुराण आदि में सूर्य का उल्लेख हुआ है । साहित्यिक स्त्रोतों के आधार पर कहा जा सकता है कि सूर्य की उत्तर और दक्षिण भारतीय प्रतिमाओं में अधिक विभेद नहीं हैं किन्तु उत्तर भारतीय शास्त्रों में उदीच्यवेश, शरीर के पूर्ण रूप से वस्त्रों से आच्छादित होने एवं वर्म, अव्यंग और उपानह धारण किये जाने को विशेष महत्व दिया गया है । इन शास्त्रकारों ने सूर्य के विजातीय तत्वों पर अधिक बल दिया है । कुछ कला समीक्षकों का मत है उत्तर भारत में प्रचलित यह शैली कुषाणों द्वारा प्रचलित की गई है। कुछ विद्वान यह मानते हैं कि सूर्य का उदीच्यवेश इस क्षेत्र में ठंड के कारण प्रभाव में आया । यह रूप पूर्वी ईरान की शैली पर विकसित हुआ ।
कुमाऊँ मंडल के विभिन्न स्थानों से सूर्य क्री प्रतिमाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं । कुमाऊँ से तो सभी सूर्य प्रतिमाएं उत्तर भारतीय शैली की ही मिली हैं।आदित्य (महर), रमकादिंत्य (काली कुमाऊँ) बेलादित्य (बेलपट्ठी) बड़ादित्य (कटारमल) भौमादित्य (बागेश्वर) आदि की सूर्य प्रतिमाएं उत्तरी परम्परा की हैं। इस परम्परा के अन्तर्गत उपानह धारण लिये द्विभुजी सूर्यं पूर्ण विकसित सनाल पद्म धारण किये निरुपित किये जाते हैं। सनाल कमल स्कन्धों से उपर प्रदर्शित किया जाता है।
यहां जो सूर्य प्रतिमाएं मिली हैं उनकी संख्या से भी ज्ञात होता है कि कूर्माचल में सौर उपासकों का एक बड़ा समूह रहा होगा । क्षेत्र का सबसे बड़ा सूर्य मंदिर कटारमल अल्मोड़ा में ही है । आदित्यथान से प्रकाश में आयी सूर्य की प्रतिमा न केवल क्षेत्र की सबसे वही प्रतिमा है, वरन यह प्रतिमा भव्यता की दृष्टि से भी अप्रतिम है ।
कटारमल के प्रसिद्ध सूर्य मंदिर में भगवान भास्कर की दिपदिपकरती प्रतिमा दर्शनीय है । जिसमें सूर्यं देव आसनस्थ होकर स्थारुढ़ है। गुणादित्य ग्राम से वर्ष १६८१ में चोरी गयी भगवान भास्कर की ९ वींशती ई. की प्रस्तर प्रतिमा में रथानक द्विभुजी सूर्य कन्धों से नीचे पहुंचते प्रफुल्लित सनाल पद्म धारण किये हैं । किरीट कुंडल, लम्बी घुंघराली केशराशि, अलंकृत कवच, जूते धारण किये सूर्यदेव के दोनों अनुचरदंड और पिंगल उनके पैरों के दायें-बायें खड़े हैं । सिर के पीछे पद्म पत्रों का प्रभामंडल दैदीप्यमान है । काले मटमैले प्रस्तर की बनी यह प्रतिमा वर्तमान में राजकीय संग्रहालय अल्मोड़ा में प्रदर्शित है ।
यद्यपि हिमालयी क्षेत्र में सूर्य की उपासना कुषाणों से सम्बन्धित की जाती है परन्तु पर्वतीय क्षेत्र के मंदिरों में 1६वीं शती तक की प्रतिमाओं का क्रमिक विस्तार देखा जा सकता है । इस क्षेत्र से प्रकाश में आयी सूर्य की प्रतिमाएं स्थानक,
समपाद अथवा बैठी मुद्रा में प्रदर्शित हैं । सूर्यदेव को शास्त्रों में वर्णित सप्त अश्वों के रथ पर खड़ा अथवा बैठा दिखाया गया है । सूर्य को बौने रूप से भी विष्णु की भांति प्रदर्शित करने का प्रयास हुआ है । गढ़सेर तथा बमनसुआल से प्रकाश में लायी गयी सूर्य की प्रतिमाएँ इसी प्रकार की हैं। इन प्रतिमाओं में मुकुट और शारीरिक बनावट का अनुपात अपेक्षाकृत छोटे आकार का है। चोलक, उपानह और कटार से भूषित कन्धों तक उठे दोनों हाथों में पुष्पगुच्छ धारण किये सूर्य के साथ निचले पाश्र्वाे में मिलने वाले दंड और पिंगल यहां उपस्थित नहीं हैं। ऐसी ही प्रतिमा अल्मोड़ा जनपद के एक गांव में नौले की दीवार से जड़ी देखी गयी । सूर्य की प्रतिमाएँ नवग्रहों तथा देव पट्ट पर भी देखी गयी हैं । अल्मोड़ा के नजदीक स्थित एक देवालय में सूर्य देव को विष्णु की ही भांति बौना प्रदर्शित किया गया हैै ।
कुमाऊँ क्षेत्र में लगभग आठवीं शती से सूर्य प्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ हो गया । यहाँ से जो प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं वे प्रायः आठवीं शती अथवा उसके बाद निर्मित हैं । इस क्षेत्र में स्थानक के अतिरिक्त भी स्थानक स्थारुढ तथा आसनस्थ स्थारुढ सूर्य की प्रतिमाएँ बनाने की परम्परा थी। इन प्रतिमाओं की संख्या अपेक्षाकृत कम है । कटारमल, पुभाऊँ नया बागेश्वर से ही स्थारूढ सूर्यं की प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं । पूर्व मध्य काल की प्रतिमाओं में प्राचीन परम्पराओं का प्रभाव अधिक मात्रा में दृष्टिगोचर होता है । अलंकृत टोपी से युक्त शीर्ष के पृष्ठ माग में पद्मपत्र एवं मुक्तावलियों आदि से सुसज्जित विशाल प्रभामंडल दोनों हाथों में पद्मपत्र एवं मुक्तावलियों से सुशोभित प्रभामंडल, अधोवस्त्र के रूप में ढ़ीला चोला तथा वाम पार्श्व में लटकती कटार, सात अश्वों से जुता एक चक्र का रथ तथा उपानह कुषाण काल की प्राचीन परम्पराओं के द्योतक है । दोनों पाश्र्वाें में दंड तथा पिंगल तथा प्रफुल्लित पद्मपुष्प गुप्त काल की कला का प्रभाव हैं ।
मध्यकाल में सूर्य के परिवार से वृद्धि की परिणति स्वरूप अश्वनी कुमार, ऊषा, प्रत्युषा, संज्ञा, भूदेवी, महाश्वेता, रेवन्त, सारथी अरूण आदि का अंकन प्रारम्भ हो गया । सूर्य की भूषा में परिवर्तन स्पष्ट दिखाई देने लगा। किरीट मुकुट, चुस्त पाजामा, भारी चोगा, मेखला तथा शीर्ष के पीछे लघु प्रभामंडल बनने प्रारम्भ हुए ।
यहीं यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि कुमाऊँ के पूर्वी भाग में सूर्यं देवालय अधिक प्राप्त होते हैं। यह बात भी बहुत महत्वपूर्ण है कि सूर्य के अधिकांश मंदिर पीढ़ा अथवा फाँसणा शैली में निर्मिंत किये जाते थे जो बारह पीढ़ाओं तक अथवा कम पीढ़ाओं से युक्त रहे ।