पहाड़ की होलियों का सामाजिक व सांस्कृतिक परिदृश्य कई मायनों में देश के अन्य प्रान्तों व इलाकों से अलग दिखायी देता है। दरअसल पहाड़ में होने वाली होलियां स्थानीय प्रकृति समाज के साथ बहुत गहराई के साथ जुड़ी हुई हैं। यहां की होलियों में स्थानीय लोक सम्पूर्णता के साथ समाहित है। हांलाकि यहां प्रचलित अधिकांश होली गीत उत्तर भारत के ब्रज व अवध इलाके से आये हैं, परन्तु इनके गायन-वादन और प्रस्तुतिकरण में पहाड़ की मूल सुगन्ध साफ तौर पर महसूस की जाती है। शनैः शनैः स्थानीय लोक के राग व रंगों अपने अन्दर समाहित करते रहने से पहाड़ की होली ने एक नये स्वरुप के तौर पर अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है।
कुमाऊं के ग्रामीण इलाकों में हर परिवार के आंगन पर खड़ी होली गाने की परम्परा दिखायी देती है। जिसमें गांव के लोग सामूहिक तौर पर अनिवार्य रुप से भाग लेते हैं। फाल्गुन एकादशी के दिन सार्वजनिक स्थान पर गाडे़ गये पदम वृक्ष की टहनी में चीर बंधन की रस्म होती है। उसके बाद रंग-अनुष्ठान होता है और ततपश्चात खड़ी होलियां शुरू हो जाती है। खड़ी होलियों का यह क्रम छलड़ी (मुख्य होली) तक चलता है। खड़ी होलियां होल्यारों यानी होली गायकों द्वारा गोल घेरे में खडे़ होकर हाथ पावों के विशेष संचालन के साथ गायी जाती है। कुमाऊं में महिलाओं की बैठ होली का भी चलन है, जिनमें महिलाओं द्वारा स्वांग भी रचे जाते हैं। गढ़वाल अंचल की होली में अपेक्षाकृत कुमाऊं जैसा स्वरूप नहीं मिलता। श्रीनगर, पौड़ी, टिहरी और उनके समीपवर्ती गांव इलाकों में ही होली की झलक दिखायी देती है। जानकार लोग बताते हैं कि पुराने गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर और पुरानी टिहरी के राजदरबारों में होली गायन की समृद्ध परम्परा विद्यमान थी।
पहाड़ की बैठ होलियां भी कुछ मायनों में खास है, जो शास्त्रीय बन्धनों से कुछ हद तक मुक्त दिखलायी पड़ती हैं।यहां के समाज ने होली गायकों को बैठ होलियों में गायन की शिथिलता प्रदान की है। शास्त्रीय रागों से अनभिज्ञ गायक भी मुख्य गायक द्वारा उठाई गयी होली में अपना सुर आसानी से जोड़ लेते हैं। पहाड़ की होली लम्बे समय तक गाये जाने के कारण भी विशेष है – कुमाऊं इलाके में होली गायन की शुरूआत पूष के प्रथम रविवार से हो जाती है और फाल्गुन की पूर्णिमा के बाद छरड़ी तक और कहीं-कहीं उससे भी आगे चैत्र के संवत्सर या रामनवमी तक गायीं जाती हैं। बैठी होली में निर्वाण, भक्ति तथा श्रृंगार-वियोग प्रधान होलियों को समय, दिन और पर्व विशेष के आधार पर अलग-अलग राग और रूपों में गाया जाता है। यहां की होलियां में जहां सासांरिक माया-मोह से उबरने तथा ईश्वरीय शक्ति का संदेश दिखायी देता है वहीं यह होलियां मानव के अन्दर रस, राग-रंग,उल्लास व प्रेम का भाव संचारित करती हुई दिखायी पड़ती हैं।
पहाड़ के सामाजिक और समयामयिक आंदोलनों में भी यहां के होली गीतों की अद्वितीय भूमिका रही है। सामाजिक चेतना लाने के लिए यहां के होली गीतों को समय-समय पर सशक्त माध्यम बनाने का अभिनव प्रयोग हुआ है। इस दिशा में कुमाऊं के लोक कवि गौर्दा, चारू चन्द्र पाण्डे व गिर्दा द्वारा रचे होली गीतों ने समाज को जागरुक करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पहाड़ के लोगों में देश प्रेम की भावना पैदा करने में पाटिया , अल्मोड़ा के लोक कवि गौर्दा की होलियों का बड़ा योगदान माना जाता है।
पहाड़ की होलियां का सामाजिक मेलजोल ,सामूहिक एकता व भाई-चारे बनाये रखने में में भी योगदान है। आज भी पहाड़ में सामूहिक तौर पर होली गांव के हर आंगन में जाती है। यही नहीं कई इलाकों में परस्पर एक दूसरे के गांवो के सामूहिक स्थल पर जाकर भी होली गायी जाती है। अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़,पौड़ी व श्रीनगर जैसे अन्य कई नगरों व कस्बों में होली के पर्व-आयोजन में सभी वर्ग-संप्रदाय के लोग समान रुप से हिस्सा लेते हैं। अल्मोड़ा की पुरानी बैठी होली में बाहर से आये कई पेशेवर मुस्लिम गायकों का भी योगदान रहा है। पहाड़ से प्रवास पर गये कई लोगों ने आज भी होलियों में अपने घर गांव आने की परम्परा कायम रखी है। लखनऊ,दिल्ली व मुम्बई जैसे अन्य महानगरों में पहाड़ के प्रवासी समाज को यहां की होलियों ने सांस्कृतिक व सामाजिक रुप से अलग पहचान प्रदान की है।