कुमाउनी भाषा में जागर शब्द का अर्थ है–देवता को जागृत करना । जागर के अन्तर्गत कुमाऊँ में देवता आह्वान की वह विशिष्ट प्रक्रिया आती है जिसके अन्तर्गत गायन और नृत्य के आधार पर किसी मानव शरीर पर देवता, भूत प्रेत आदि को जागृत कर अवतरित किया जाता है ।
कुमाउनी परिवारों में जागर के माध्यम से देवता को अभीष्ट की प्राप्ति के लिए आमंत्रित करने की व्यापक परम्परा है । जिसमें सम्बन्धित देवता किसी व्यक्ति को माध्यम बनाकर आयोजनकर्ता तथा जागर के स्थान पर एकत्रित व्यक्तियों के प्रश्नों के उत्तर देता है तथा जिस प्रयोजन हेतु जागर आहूत होता है उसके निदान का रास्ता बताता है । गाथाएँ गाने वाले जगरिये रात्री मे कुछ विशिष्ट क्रियाएँ कर और गाथाऐं गाकर देवता को किसी व्यक्ति विशेष पर चेतन करते है । परिवारिक संकट, रोग, प्रेत-बाधा आदिं से मुक्ति पाने, कुछ परिवारों में दूरस्थ यात्रा की तैयारी पर ईष्ट देवता से अनुमति लेने, सन्तान के नौकरी हेतु भर्ती होने तथा पुत्र प्राप्ति के बाद उत्सव के रूप
तथा कभी-कभी नववधू के आगमन के पश्चात् पारिवारिक देवता को प्रसंन्न करने के लिए भी जागर का आयोजन किया जाता है । जागर के आयोजन हेतु एक निश्चित तिथि सुझाई जाती है । यह तिथि हर दृष्टिकोण से शुभ हो, यह जागर की निर्विघ्न सफलता के लिए आवश्यक है ।
जागर आयोजन से जागर का मुख्य संवालक और गायक जगरिया कहलाता है। वह मुख्य गाथा को गाता है । सहायकों के रूप में जागर लगाने वाले भगार या हेवार कहलाते हैं । देवता अवतरण के लिए जो व्यक्ति माध्यम का मुख्य कार्य करता है, वह डंगरिया कहलाता है । जागर के आयोजनकर्ता को सौकार कहते हैं । हेवार ही मुख्यतः सहायक वाद्ययंत्रों को बजाते है । वाद्ययंत्रों में मुख्य हैं -ढ़ोल, डांङर, नगाड़ा, कॉंसे की थाली, कॉंसे या पीतल की परात, मुरज तथा पर्वतीय ताल वाद्य हुड़का । जागर के आयोजन में स्योंकार के अतिरिक्त उसके परिवार वाले, बिरादरी के लोग तथा प्रायः सारे गाँव वाले आमंत्रित होते हैं । यद्यपि जगरिये पेशेवर ही होते हैं लेकिन पूर्णकालिक जगरिये प्रायः नहीं होते ।
जागरिये गुरु शिष्य परम्परा के अनुरूप जागर गायन, संचालन सीखते हैं तथापि पिता अपने पुत्र को जागर कथाएं सुनाकर तथा अपने साथ जागर आयोजनों में ले जाकर ही निष्णात बनाता है । ज़गांरेये के लिये गायन के अतिरिक्त ढ़ोल, नगाड़ा, हुड़का जैसे वाद्ययंत्रों को बजाने की क्रिया में पूर्ण निपुण होना चाहिये । जागर के निष्णात होने से वर्षों का श्रम लगा होता है ।
जागर की तैयारी का प्राथमिक चरण है- उस स्थान की सफाई जहां जागर आयोजित की जानी है । ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं प्रातः से ही गोबर तथा मिट्टी से लीप-पोत कर घर तैयार करती है । स्योंकार के घर के समी सदस्य तथा जगरिये, डंगरिये, थाली वादक आदि के लिए भी जरूरी है कि वे नहा-धोकर अपने को शुद्ध करें । अपवित्र स्थान तथा व्यक्तियों के सम्पर्क में आने से जागर में आहूत देवता माध्यम पर अवतरित होने से इंकार भी कर सकता है । प्रातः से ही उपवास का भी क्रम प्रारम्भ हो जाता है ।
रात्रि का प्रथम प्रहर प्रारम्भ होते ही थाली वादक एक विशेष प्रकार से थाली वादन प्रारम्भ करता है । थाली का विशिष्ट शेैली में बजना सभी के लिए जागर में निमंत्रण है। इसे नौबत कहा जाता है । लोगों के एकंत्रित हो जाने तथा त्योंकार की सहमति के बाद जागर का दूसरा चरण प्रारम्भ होता है । जगरिये के निर्देशानुसार सभी के बैठने की व्यवस्था की जाती है ।जिसमें डंगरिया के लिये मध्य में पर्याप्त स्थान छोड़ा जाता है । जागर को देखने के लिए किसी तरह का कोई प्रतिबन्ध नहीं है । महिलाए भी बैठकर जागर का पूर्ण आनंद लेतीं हैं ।
जागर का प्रारम्भ जगरिये द्वारा ईश वन्दना से होता है । हुड़के की थाप के साथ राम, कृष्ण शिव, ब्रह्मा, विष्णु आदि का स्मरण कर उनसे आशीर्वाद देने की प्रार्थना की जाती है । सभी प्रमुख तीर्थाें का नाम लिया जाता है । इस बीच जगरिये के निर्देश पर गोमूत्र व गंगाजल सभी उपस्थित व्यक्तियों तथा कमरे में छिड़क कर उन्हें पवित्र किया जाता है। दीप जलाकर स्योंकार देवता के लिए आसन तैयार करता है। इसके अन्तर्गत कम्बल अथवा कपडे़ पर अक्षत, पुष्प तथा सिंक्कें रखे जाते हैं । धूनी की जाग जलायी जाती है । इसका जागर के पूरे समय तक जलते रहना आवश्यक है ।
इसके बाद मुख्य कथा का गायन किया जाता है । यह कथा उस आत्मा या देवात्मा से सम्बन्धित हो सकतीं है जो जागर के माध्यम से बुलाई जानी है । इनसे लोक देवताओं की कथाएं भी शामिल हो सकती हैं । विलम्बित लय से ही यह गायन चलता है । इसमें आवेश के साथ भूत-प्रेत आदि को जगरिये की आवाज बुलाती सी प्रतीत होती है । वाद्ययंत्रों की आवाज वातावरण को रहस्यपूर्ण बना देती है ।
इसके बाद ही उस मुख्य देवता के गायन पर जगरिया आ जाता है जिसे आहूत करा जा रहा होता है, उस विशिष्ट देवता का किस प्रकार पृथ्वी पर आविर्भाव हुआ, उसके द्वारा पापियों को दंड दिये जाने, ग्राम देवता या लोक देवता के रूप में और संकट टालने तथा उसके यशोगान को गाया जाता है । वह व्यक्ति, जिस पर देवता का अवतरण होता है, उस समय तक शांत बैठा रहता है।
जगरिंये के आहवान से वातावरण धीरे-धीरे निस्तब्ध-सा बन जाता है इसी के साथ ही जब थाली इत्यादि वाद्ययंत्रों की आवाज़ तेज होती जाती है, डंगरिया आवेशित होना प्रारम्भ होता है । धीरे-धीरे डंगरिये के शरीर में कंपन शुरु हो जाता है और बैठी स्थिति में आगे पीछे झुकना और तेजी से वलयाकार घूमना इस बात का द्योतक समझा जाता है कि देवता का अवतरण शुरू हो गया है । गायन की प्रक्रिया इस समय भी अनवरत रूप से जारी रहती है ।
वाद्ययंत्रों की ध्वनि इस समय अपने चरम पर पहुंचने लगती है जिसमें जगरिये की गायन शैली भी
सम्मिलित होती है । देवता की प्रकृति के अनुरूप नृत्य उग्र अथवा सौम्य हो सकता है । नृत्य के दोरान आवेशत डंगरिये के माध्यम से देवता अपनी इच्छाएँ प्रकट करता है । जगरिया भी अपने प्रश्न पूंछ कर आवेशित डंगरिये से प्रार्थना करता है कि देवता स्योंकार के दुखों के निवारण हेतु अग्रसर हो ।
देवता डंगरिया के माध्यम से उस स्थान विशेष की स्थिति के अनुसार चारों तरफ निरीक्षण कर प्रश्नों के उत्तर देना प्रास्म्भ करता है कि कष्टों का कारण भौतिक है या दैविक । घर-परिवार का ईष्ट तो कहीं किसी कारण से नाराज तो नहीं । घर में बीमारी है तो वह किस प्रकार से ठीक हो जायेगी । यदि धन कष्ट हो रहा है तो वह कब तक दूर हो जाने की सम्भावना है । घर में किसी मृतक की आत्मा के कारण कष्ट है तो उन्हें क्या उपाय करने से दूर किया जा सकता है ।
देवता कभी-कभी स्वंय भी उस व्यक्ति की जोर आकृष्ट होता है जो बीमारी इत्यादि का शिकार है । यदि किसी प्रेतबाधा के कारण संकट है तो उस आत्मा को देवता भी डरा- धमका कर घर छोड़ देते के लिए कहता है । यदि परिवार में कोई अकाल मृत्यु वाला अथवा निकट का व्यक्ति प्रेतात्मा होने पर कष्ट दे रहा होता है तथा यह प्रेतात्मा ही डंगरिये पर अवतरित होती है, तो वह भी अपनी मुक्ति के लिए किये जाने वाले कार्याें को बता सकता है । ज़गरिये द्वारा उस स्योंकार से भी वचन दिलवाया जाता है कि वह अतृप्त आत्मा के अनुसार विधि विधान से उसकी मुक्ति के लिए कहे कार्यों को सम्पन्न करवायेगा । यह अतृप्त आत्मा जागर के दौरान किसी परिवारजन पर भी आ सकती है । स्योंकार के अतिरिक्त भी लोग इस देवात्मा से अपने सम्बन्ध में प्रश्न कर उत्तर प्राप्त कर सकते है । प्रश्न पूछने के लिये शुद्ध चावल व भेंट देवता को अर्पित की जाती है ।
जागर का अन्त देवता की विदाई से संपन्न होता है । क्रिया के अन्त में देवता द्वारा आर्शीवाद प्रदान कर दिये जाने के बाद देवता की पूजा करके ज़गरिये उसे विदा करते है । इस प्रक्रिया में तंत्र प्रयोग आदि भी चलता है ।
कुमाऊँ में लोक देवताओं के स्थान-स्थान पर जागर प्रवलित हैं । किन्तु सभी स्थानों पर सब देवता नहीं बुलाये जाते । स्थान एवं जाति के ईष्ट के अनुसार देवताओं के भी प्रभाव क्षेत्र बंटे हैं ।
सर्वाधिक प्रचलित जागर गोल्ल देवता की है । चम्पावत के राजा गोल्ल को समूचे कुमाऊँ में न्याय देवता के रूप से पूजा जाता है । इन देवता का जागर क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है । गरदेवी का जागर, कलसिन का जागर, नंदादेवी का जागर, भोलानाथ, गंगनाथ स्थान विशेष में प्रचलित हैं । हरज्यू, निरंकार और कलबिष्ट के जागर क्षेत्र विस्तृत हैं । कत्युरी, चंद राजाओं के जागर, चंपावत, लोहाघाट में अधिक प्रचलित हैं । नंदादेवी मेले में नंदा का जागर लगता है।
जागर में मुख्य देवताओं के अतिरिक्त सहायक शक्तियों के भी जागर लगाये जाते हैं । जागर घर के अन्दर भी लग सकते हैं और बाहर भी । गोल्ल का जागर घर के अन्दर लगता है, जबकि गंगनाथ, भोलानाथ के जागर घर के बाहर लगते हैं । जागर में नृत्य की योजना विशिष्ट होती है । यह आवेशित डंगरिया देवता के अनुसार सम्पन्न करता है ।
जागर में तांत्रिक प्रभाव भी स्पष्ट परिलक्षित होता है । सिद्ध नाथ योगियों के तांत्रिक प्रभाव ने भी जागर में गायी जाने वाली गाथाओं को पर्याप्त प्रभावित किया है।