भारतीय साहित्य में अनुरागी मन को मथने वाले जिस देवता का उल्लेख है -वह हैं कामदेव। वे तन को सक्रिय रखकर, मन को निरन्तर मथते रहते हैं, इसलिए उनका नाम मन्मथ भी है। वह सभी देवों से पहले उपत्न्न हुए इसलिए उन्हें अग्रजन्मा कहा गया है। वह सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का मूल हैं। कामदेव एक सामान्य देवता नहीें हैं, वे प्रकृति में हर क्षण उर्जा रूप में विद्यमान रहते हेैं। वे अनंग हैं जो किसी एक विशेष अ्र्रंग में न रह कर जीवन को कमनीय, मधुपूरित एवं उर्जावान बनाने के लिए सुवासित बासंती वायु में, चिड़ियों के चहकने में, पुष्पों के रूप, रस, गंध में तथा प्रकृति के क्षण-क्षण बदलते कलेवर में निरन्तर अपनी उपस्थिति बनाये रखते हैं।
श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि शिव द्वारा क्रोध से भस्म कर दिये जाने के बाद कामदेव ने पुनः शरीर की प्राप्ति के लिए वासुदेव का आश्रय लिया तथा प्रद्युम्न के रूप में उन्होंने श्रीकृष्ण को पिता तथा रूक्मिणी को माता के रूप में प्राप्त किया तथा वासुदेव अंशी कहलाये। कामदेव को ही जलदेव वरूण का भी अवतार माना गया है। वरूण को प्रद्युम्न-कामदेव तथा उनकी पत्नी गौरी को रति माना गया है।
सर्वप्रिय देवता कामदेव के स्वरूप पर प्राचीन साहित्य में विषद सामग्री उपलब्ध है। यद्यपि वे अशरीरी और अनंग हैं परन्तु उनकी अल्प मात्रा में ही सही लेकिन उनकी अत्यंत सुन्दर प्रतिमायें प्राप्त होती रहती हैं। मंदिरों में भी उनकी अत्यंत भव्य प्रतिमायें स्थापित की जाती थीं।
उत्तराखंड से कामदेव की एक दुर्लभ एवं मनभावन प्रतिमा प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा शिल्पकला की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। बागेश्वर जनपद की कत्यूरघाटी में बैजनाथ के पास ही स्थित है- गढ़सेर गांव ,जहां से बलुए प्रस्तर अल्मोड़ा ग्रेनाइट की मटमैले भूरे रंग के पत्थर से बनी कामदेव की प्रतिमा प्रकाश में आयी है। इस प्रतिमा में कामदेव कमलासन पर ललितासन मुद्रा में आरूढ़ है। उनके दोनों पाश्र्वाें में उनकी पत्नियां प्रीति एवं रति को त्रिभंग मुद्रा में दर्शाया गया है। परन्तु इन स्त्रियों में से एक के हाथ में चैरी है जिससे यह निश्चित रूप से कह पाना जरा कठिन है कि ये स्त्रियां रति एवं प्रीति ही हैं अथवा परिचारिकायें हैं। दांयी ओर की स्त्री का मुंह भग्न है । कामदेव का एक हाथ तथा नासिका भी किंचित भग्न है। चतुर्भुज कामदेव प्रतिमा के उपरी दायें हाथ में मकरध्वजदंड और नीचे के बायें हाथ में धनुष है जिसे वे दृढ़ता से पकडे हैं। प्रतिमा के मस्तक पर रत्न जटित किरीट मुकुट, गले में अलंकृत कंठा, अधोभाग में अलंकृत चैड़ी मेखला, हाथ में बाजूबंध तथा कंगन और पैर भी आभूषणों से सज्जित है। तन कर बैठे देव सुन्दर शरीर सौष्ठव सहित दर्शाये गये हैं जो योद्धाओं सरीखी सुगठित देहयष्टि-पतली कमर, चोैडा़ वक्ष, लम्बकर्ण, मकर कुंडलधारी, दायीं ओर कमर से नीचे बाण पकडे़ तथा धनुष को दृढ़ता से धारण किये कदली वृक्ष के पत्तों के बनेे छत्र सहित सुशोभित है। बांयी ओर की स्त्री के ऊपर गदा सदृश कोई आकृति बनी है। पादपीठ के नीचे बांयी ओर अगले पैरों को मोड़कर बैठे हुए अश्व अथवा खर का अंकन है।
इस प्रतिमा में निदर्शित लक्षण लांछन यथा ललितासन में विराजमान वस्त्राभूषणों से सजे देवता को किरीट मुकुट, कुंडल और केयूर से सज्जित करना, बाण, मकरकेतन और पुष्प-धनुष से सज्जित कर सिर के उपर छत्र बनाकर कमलासन के नीचे वाहन का प्रदर्शन शास्त्रोक्त है। प्रतिमा में प्रदर्शित मकरध्वज, पुष्प धनुष और वाहन खर अथवा अश्व कामदेव के मत्स्य पुराण में दिये विवरण के अनुरूप है। कदली वृक्ष इन्द्रदेव के बाग का प्रतीक है। परन्तु इस प्रतिमा में शास्त्रों में प्रदर्शित कामदेव की प्रतिमा के लक्षणों के अतिरिक्त अन्य लक्षण भी हैं। यह आश्चर्यजनक है कि इस प्रतिमा में विष्णु प्रतिमा के लक्षण भी मिले है। कामदेव की प्रतिमा में उनके आयुधो में गदा और पद्म पुष्प प्रायः दिखाई नहीं देते हैं। केवल प्रद्युम्न को वृहत्संहिता के अनुरूप गदा तथा बाण सहित दर्शाने की परम्परा रही है।
इसलिए एक क्षीण सम्भावना यह भी है कि प्रतिमा कामदेव की न होकर प्रद्युम्न की हो जो भगवान कामदेव के द्वितीय अवतार माने जाते हैं।डा0 राकेश तिवारी ने यह सम्भावना प्रकट की है कि गढ़सेर से मिली प्रतिमा प्रद्युम्न की भी हो सकती है।
यह निर्विवाद है कि कामदेव वासुदेव के अंश हैं। वे पहले भगवान शंकर की क्रोधाग्नि में जल कर भस्म हो गये थे। पुनः शरीर प्राप्त करने के लिए उन्होंने रूक्मणि के गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लिया तथा प्रदुम्न नाम से विख्यात हुए। इस लिए प्रद्युम्न को कामदेव का द्वितीय अवतार भी माना जाता है।
कामदेव की लगभग दसवीं शती में निर्मित प्रतिमा के आकार को देखकर यह कहा जा सकता है कि यह प्रतिमा किसी मंदिर की मुख्य प्रतिमा रही होगी। डा0 हेमराज ने सम्भावना व्यक्त की है कि यह प्रतिमा किसी मंदिर की मुख्य प्रतिमा यदि रही होगी तो सम्भव है कि इस क्षेत्र में कामदेव का एक स्वतंत्र मुख्य मंदिर भी रहा ही होगा । इस लेखक का तो मानना है कि प्रतिमा में प्रदर्शित पुष्प पद्मपुष्प जैसा नहीं लगता न ही बांयी ओर के दंड के लिए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वह गदा ही है। इसलिए यह प्रतिमा निश्चित रूप से कामदेव की ही है जो अपने मुख्य लक्षणों के अतिरिक्त प्रद्युम्न के आंशिक लक्षणोंके साथ दर्शायी गयी है। यह कहा जा सकता है कि मदन कामदेव की पूजा भी इस क्षेत्र में प्रचलित रही होगी।
जो भी हो यह प्रतिमा भारतवर्ष की एक महत्वपूर्ण एवं दुर्लभ कलानिधि है। यद्यपि विभिन्न ग्रंथों में कामदेव पर प्रभूत सामग्री उपलब्ध है किन्तु उनकी प्रतिमाऐं तथा मंदिर बहुत कम मिलते है। इस क्षेत्र में वर्तमान में भी इस देवता का कोई स्वतंत्र मंदिर नहीं मिला है। प्रतिमा भी अकेली ही प्रतीत होती है। इसलिए भी इस प्रतिमा का महत्व बहुत बढ़ जाता है।
वर्तमान में यह प्रतिमा राजकीय संग्रहालय अल्मोड़ा में संरक्षित है।
इतिहास और पाषाण मूर्ति कला की दृष्टि से आपने कत्यूर घाटी की कामदेव की इस एकलौती दुर्लभ प्रतिमा पर अत्यंत गहन और विश्लेषणात्मक प्रकाश डाला है। इतिहास व पुरातत्व में रुचि रखने वालों के लिए यह सामग्री बहुत महत्वपूर्ण है। आपके इस शोध पूर्ण आलेख के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।
चंद्रशेखर तिवारी, देहरादून।
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