प्राचीन भारतीय वाङमय में शक्ति उपासना की परम्परा सम्भवतः देवी शक्ति से सामर्थ ग्रहण करने के उद्देश्य से ही की जाती होगी । साहित्यिक स्त्रोतों एवं पुरातात्विक उत्खननके आधार पर शक्ति उपासना की परम्परा व विकास का विधिवत पता चलता है ।
उत्तराखंड के पुरातात्विक सर्वेक्षणों में सर्वाधिक शक्ति प्रतिमाएं महिषासुर मर्दिनी की प्रकाश में आयी हैं । उनमें जागेश्वर व बैजनाथ की दिपदिप करती महिष मर्दिनी की प्रतिमाऐं इस क्षेत्र की दुर्लभ कलानिधि हैं । इनके अतिरिक्त भी नारायणकाली, गंगोलीहाट, त्रिनेत्रेश्वर, डिंगास, पिथौरागढ़ आदि से महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमाऐं प्रकाश में आयी हैं । इनमें मुकुट, कर्णकुंडल, कंठहार, एकावलि, बाजूबंध, कंकण, उदरबंध और नुपुर से अलंकृत देवी को महिषासुर का वध करता हुआ प्रदर्शित किया गया है । त्रिशूल का प्रहार महिषासुर पर करती देवी पदाघात मुद्रा में एक हाथ से महिषासुर के केश पकड़े हैं । ये प्रतिमाएं दसवीं शती ईं. से लेकर १५वीं शती के मध्य निर्मित हैं ।
निश्चित रूप से इस प्रकार की प्रतिमाएं महिषासुरमर्दिनी की लोकप्रियता का परिचायक तो हैं ही देवी शक्ति के रूप में सर्वोच्च सत्ता को मान्यता देने का प्रयास भी है।
दसवीं शती ई. में निर्मित उत्तराखंड की दुर्लभ कला सम्पदा के रूप में ख्याति प्राप्त जागेश्वर में स्थापित महिषासुरमर्दिनी इस क्षेत्र की महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर हैं । चतुर्भुजी,सिंह पर आरूढ, एकावलि, कंगन, कंठहार, उदरबंध, मुकुट से सज्जित, पुष्टशरीर वाली, देवी महिषासुर का संहार करते हुए प्रदर्शित है । उनका वाहन सिंह महिषासुर पर आक्रमण करते हुए दिखाया गया है । त्रिशूल से महिषासुर को छेदती देवी का बायाँ हस्त महिष शरीर से मानवरूप में निकलते महिषासुर के केश थामे है। देवी के दायें हाथ में खडग प्रदर्शित है । एक आयुध सम्भतः भग्न हो गया है । मूर्ति की विशेषता देवी के मुख मंडल के भाव हैं जिनसे प्रतीत होता है जैसे देवी महिषासुर का वध न कर उससे कह रहीं हो-मैंने तुझे त्राण दिया ।
महिषमर्दिनी की एक अन्य प्रतिमा भी प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इसमें महिषमर्दिनी दुर्गा को ऊँचे केशपाश, कुंडल, एकावली बाजुबन्ध, कंकण, उदरवंध और साड़ी से सज्जित दिखाया गया है । उनके अगले हाथ में कृपाण है पिछले दायें हाथ से वे महिष के पृष्ठ भाग पर त्रिशूल से प्रहार कर रही हैं । त्रिशूल का अगला भाग महिषासुर की पीठ में धंसा है। पिछले बायें हाथ में खेटक दर्शाया गया है । चौथे हाथ से देवी ने महिषासुर के केश पकड़ रखे हैं । रौद्ररूपणी देवी दायें पैर से महिष पर पदाघात कर रही है । उनका वाहन सिह मुँह से महिष को दबाये हुए है । महिष की ग्रीवा से निकलते हुए महिषासुर के हाथ में कृपाण है । ऊपरी भाग भग्न इस प्रतिमा का काल १० वीं शती ई. है ।
कुमाऊँ मंडल से प्रकाश में आयी महिषासुरमर्दिनी की अधिकांश प्रतिमायें भग्न हैं । ये प्रतिमायें किसी अन्य देवता के साथ स्थापित न होकर प्रायः स्वतंत्र हैं । सारी प्रतिमायें या तो मूल विग्रह के रूप में पूजित हैं या फिर वे परिवार देवता के साथ मंदिरों में स्थापित हैं । कहीं दुर्गा, कहीं काली तो कहीं पुष्टि देवी के रूप में उनके मंदिर हैं । महिषासुर मर्दिनी की अधिकांश प्रतिमायें शैव केन्द्रों में स्थापित हैं । सभी प्रतिमाओं में उनके रूपायन को निखारने में कलाकार ने अपनी प्रतिभा और हस्तलाघव झोंक दिया है। इसलिए भुजाओं और आयुधों में संगति प्रतिमा विज्ञान के अनुरुप है । सर्वाभरणभूषित, पुष्ट शरीर वाली देवी के कहीं दायीं ओर तो कहीं बायीं ओर अधोभाग में सिंह से आक्रान्त महिषासुर देवी विग्रह के मुकाबले अत्यंत लघु आकार में ही प्रदर्शित है। पर्वतीय नारी सी मुख मंडल की छवि अनेक प्रतिमाओं में स्थानीय प्रभाव को रूपायित करती है।
प्रतिमाओं के मुख मंडल शिल्पियों ने निर्लिप्त और निर्विकार भाव को प्रदर्शित करने वाले ही गढ़े हैं । प्रतिमाओं के अवलोकन से प्रतीत होता है कि मानों कलाकार यह सन्देश देना चाहता हो कि मनुष्य की आसुरी प्रवृत्तियाँ विनाश करने योग्य हैं और क्रोधरूपी महिष का संहार करने वाली देवी निमित मात्र । प्रतीत होता है कि निष्काम कर्म के सिद्धान्त को ही मूर्ति में दर्शाया गया है अर्थात समस्त कर्मों में केवल शरीर ही क्रियारत है- आत्मा है अविकल, अविचल, शान्त और निर्लिप्त ।