लखुडियार का चित्रित शैेलाश्रय अल्मोड़ा नगर से १३ किमी. दूर अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मार्ग पर दलबैंड के पास है । इसके बगल से ही सुआल नदी बहती है । सुआल का रूख यहां अर्धचन्द्रमा की तरह वर्तुलाकार हो जाता है । सड़क के दांयीं ओर नदी से लगा हुआ एक विशालकाय शिलाखंड है।
इस विशाल शिला का ऊपरी भाग सर्प जैसी आकृति बनाता हुआ छत्र में बदल जाता है । कभीआवास के लिए यह चट्टान सर्वश्रेष्ठ रहीं होगी । ऊँचाई पर स्थित होने के कारण जानवरों से बचाव होता होगा । छत्र पानी से रक्षा करता होगा । नदी पास होने से पानी पीने जाये जानवरों का शिकार भी सरल बन पड़ताा रहा होगा । इस शैलाश्रय तक पहुँचने के लिए चट्टान की दांयी और से एक संकरा रास्ता है । इस रास्ते से होकर चट्टान तक पहुंचा जा सकता है जो न केवल अपनी भव्यता, मनोहारी स्वरूप और विशालता के कारण अपनी ओर आकर्षित करती हुई लगती है, वरन् चित्रित भी है ।
लखुडियार की चट्टानी सतह पर चित्रांकनों की अनेक वीथिकाऐं दृष्टि गोचर होती हैं। प्रतीत होता है
कि कभी प्रागैतिहासिक मानव ने उन्मुक्त भाव से यहां अपनी तूलिका चलाई थी।
शैलाश्रय में पहुँचते ही धुँधली-धुँधली सी आकृतियों के रंग चमकने लगते हैं। समय के थपेड़ों और वायु, जल तथा उष्मा की मार ने अधिकांश चित्रों को धूमिल कर दिया है । रंग संयोजन पर हल्की सी पारदर्शी परत भी चढ़ गयी है । चित्रण का मुख्य विषय मानवाकृतियों का नृत्य मुद्रा में खडे़ होना है । कहीं कहीं अकेले अथवा समूहबद्ध नर्तक भी दर्शाये गये हैं । लम्बे चोगे पहने कतारबद्ध ये मानव हाथों में, हाथ डाले हैं । कहीं मस्ती से उल्लसित हो नृत्य को गति देते जान पड़ते हैं । इन आकृतियों के अतिरिक्त ज्यामितीय डिजाइन, बिन्दू समूह, सर्पिलाकार रेखायें, वृक्ष जैसी आकृतियां और पशु भी अंकित हैं ।
शैेलाश्रयों में चित्रण का तरीका प्रारम्भिक और परम्परागत है । शैलाश्रय में जैसे ही कदम रखते हैं, कतारबद्ध मानवों की टोलियां ऊपर से नीचे तक फैली नजर जाती हैं । एक अन्य चित्र संयोजन में पशु तथा मानवों का अंकन है । पशु का रंग काला है । यह लोमड़ी जैसा लगता है । मानव कत्थई रंग से बनाये गये हैं । इस चित्र से थोड़ा हटकर ६ नर्तक और खड़े हैं । एक ओर शिरोवेष धारण लिये सात आपादमस्तक लबादाधारी मानव और हैं ।
इसी चट्टान में एक अन्य चित्रांकन भी आकर्षक है । इसमें पन्द्रह मानव आकृतियां तथा दो पशु चित्रित किये गये हैं । मानवाकृतियों का आकार समान नहीं है । कुछ बड़ी हैं कुछ छोटी । बडी पशु आकृति के पीछे छोटे पशु का आधा भाग छिप गया है । कुछ विद्वान बडे पशु को पहाड़ी बकरी मानते हैं । पशु की ताम्रवर्ण आकृति पूरक शैेली में बनी है ।
शैलाश्रय के मध्य से आम आदमी की पहुंच से बाहर एक पिटारे जैसी आकृति बनायी गयी है । इसके पास ही एक मानवाकृति खड़ी है । पूरे शैलाश्रय में यह चित्र सबसे ज्यादा चटकीला है । शैेलाश्रय के दूसरी और वृक्ष जैसी आकृतियों का भी अंकन किया गया है । ऊपर की ओर निगाह उठाते ही बिन्दु समूह एवं सर्प जैसी आकृति दिखाई देती है । आश्चर्य है कि इनका चित्रण इतने ऊपर कैेसे किया बनाया होगा ।
डा. यशोधर मठपाल का मानना है कि इन शैलचित्रणों के मानव आखेट से सम्बन्धित न होकर पशु चारक हैं और अपने जानवरों को हांका देकर गन्तव्य की और ले जाना चाहते हैं । नृत्य जहाँ सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करता है वहीं सामूहिक ग्राम्य जीवन का भी संकेत देताहै ।
लखुडियार के चित्रित शैलाश्रय के पास ही तीन अन्य चित्रित शैलाश्रय विद्यमान हैं । इस स्थान को फड़कानौली नाम से जाना जाता है । यहां भी चट्टानों केा प्राचीन मानव ने अपनी तूलिका से चित्रित किया है । चट्टान में पंक्तिब्रद्ध चार मानवाकृतियां, रेखा तथा कतारबद्ध मनुष्य आकृतियां हैं । कुछ चित्र आलेखन जैसे भी बनाये गये हैं । जबकि दूसरी शिला में अनेक स्थानों पर अस्पष्ट चित्र हैं । इनमें नृत्यरत मानव भी हैं । एक शीर्ष विहीन आकृति भी बनायी गयी है । आकृतियां ताम्रवर्णीय, हस्तबद्ध और गैरिक-श्वेत रंग की ही बनी हैं ।
चित्रणों के लिए चट्टान पर किसी लेप का प्रयोग किया गया होगा जान नहीं पड़ता। रंग संभवतरू गेरू, चूना, लकड़ी का बुरादा, कोयला, वनस्पतियों का रस, चर्बी, सिन्दूर आदि के प्रयोग से तैयार किया गया होगा । रंग तैयार करने में पशु रक्त का प्रयोग भी सम्भव है । एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि इन शैलाश्रय के पास ही कपमार्क्स मौजूद हैं । अनुमान है कि प्राचीन मानव इनके पास ही अपने मुर्दों का शवाधान करता होगा ।
अल्मोड़ा जनपद का कालीमठ से लेकर बाड़ेछीना तक का इलाका कमी अदिम मानव का क्रीड़ास्थल रहा है । हो सकता है कि चीड़, देवदार और बांज के सघन वनों में आज भी न जाने कितने चित्रित शैलाश्रय खोजियों की निगाह का इंतजार कर रहे हों ।