शिलाचित्र मानव की सुन्दरतम अभिव्यक्ति ही नहीं वरन् उसकी अमूल्य धरोहर भी हैं । माना जा सकता है कि जबसे पृथ्वी पर मनुष्य का जीवन प्रारम्भ हुआ तभी से कला का भी उद्भव हो गया होगा । कला एक इतिहास ही नहीं वरन् सृजन भी है । लगता है कि वनैले प्रान्तरों में बने प्राकृतिक उडियार (कन्दराए) या शैलाश्रयों में निवास करने वाले मानवों ने जीवन की शुरूआत के साथ ही कला की भी शुरूआत की होगी ।
उल्लास के क्षणों को अदिम मनुष्य ने प्रकृति प्रदत्त कैनवास वनैले प्रान्तरों की काली मटमैली चट्टानों की खुरदरी पाषाणी सतह पर उतारा । आज ये काली मटमैली चट्टानें ही प्रागैतिहासिक मानव की गतिविधियों और आचार व्यवहार को जानने का एक दुर्लभ साधन हैं। हजारों साल पहले दुर्गम पर्वत श्रंखलाओं में, घने जंगलों से आच्छादित चट्टानों पर जो चित्र वीथिकाऐं आदिम मानव ने अपनी रंग भरी तूलिका के माध्यम से बनायी, आज वे इस क्षेत्र की महत्वपूर्ण पुरानिधि बन गई हैं । वेैसे हिमालयी भूभाग तथा समीपवर्ती क्षेत्रों से पुरापाषाणकालीन- सांस्कृतिक निधि कालजयी पाषाण उपकरण हैं । पूर्व पुरापाषाण कालीन कुछ उपकरण अल्मोड़ा जनपद की पश्चिमी रामगंगा घाटी तथा नैनीताल जनपद के खुटानी नाले में उपलब्ध हुए हैं।
कभी कुमाऊँ-गढ़वाल का अंचल भी आदिम मानव की हलचलों से गूँजता रहा है । लखुडियार, फलसीमा, फड़कानौली, कसारदेवी, कफ्फरकोट, हटवालघोड़ा तथा पत्थरकोट , गढ़वाल में डुँग्री गाँव के शैलचित्र संभवतः उस युग की कहानी कह रहे हैं जब मानव कदाचित हथियारों का प्रयोग भी नहीं जानता था। लखुडियार,फड़कानौली, कसारदेवी, ल्वेथाप, हटवालघोड़ा तथा पत्थरकोट तथा कफ्फरकोट शैलाश्रय अल्मोड़ा जिले में ही अवस्थित हैं । अल्मोड़ा नगर के पास ही सुयाल घाटी में कालीमठ से बाड़ेछीना जाने वाली सड़क से लगी हुई एक विस्तृत पर्वत श्रृंखला है, ज्यादातर चित्रों वाली चट्टानें इसी क्षेत्र में हैं ।
लरवुडियार का चित्रित शैेलाश्रय अल्मोड़ा नगर से १३ किमी. दूर अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मार्ग पर दलबैंड के पास है । इसके बगल से ही सुआल नदी बहती है । सुआल का रूख यहां अर्धचन्द्रमा की तरह वर्तुलाकार हो जाता है । सड़क के दांयीं ओर नदी से लगा हुआ लगभग आठ मीटर लम्बा और ६ मीटर ऊँचा विशालकाय शिलाखंड है । इस विशाल शिला का ऊपरी भाग सर्प जैसी आकृति बनाता हुआ छत्र में बदल जाता है । कभी आवास के लिए यह चट्टान सर्वश्रेष्ठ रहीं होगी । ऊँचाई पर स्थित होने के कारण जानवरों से बचाव होता होगा । छत्र पानी से रक्षा करता होगा । नदी पास होने से पानी पीने जाये जानवरों का शिकार भी सरल बन पड़ताा रहा होगा । इस शैलाश्रय तक पहुँचने के लिए चट्टान की दांयी और से एक संकरा रास्ता है । इस रास्ते से होकर चट्टान तक पहुंचा जा सकता है जो न केवल अपनी भव्यता, मनोहारी स्वरूप और विशालता के कारण अपनी ओर आकर्षित करती हुई लगती है, वरन् चित्रित भी है ।
शैलाश्रय में पहुँचते ही धुँधली-धुँधली सी आकृतियों के रंग चमकने लगते हैं। समय के थपेड़ों और वायु, जल तथा उष्मा की मार ने अधिकांश चित्रों को धूमिल कर दिया है । रंग संयोजन पर हल्की सी पारदर्शी परत भी चढ़ गयी है । चित्रण का मुख्य विषय मानवाकृतियों का नृत्य मुद्रा में खडे़ होना है । कहीं कहीं अकेले अथवा समूहबद्ध नतृक भी दर्शाये गये हैं । लम्बे चोगे पाने कतारबद्ध ये मानव हाथों में, हाथ डाले हैं । कहीं मस्ती से उल्लसित हो नृत्य क्रो गति है देते जान पड़ते हैं । इन आकृतियों के अतिरिक्त ज्यामितीय डिजाइन, बिन्दू समूह, सर्पिलाकार रेखायें, वृक्ष जैसी आकृतियां और पशु सदृश चैपाये भी अंकित हैं ।
शैेलाश्रयों में चित्रण का तरीका प्रारम्भिक और परम्परागत है । शैलाश्रय में जैसे ही कदम रखते हैं, कतारबद्ध मानवों की टोलियां ऊपर से नीचे तक फैली नजर जाती हैं । एक अन्य चित्र संयोजन में पशु तथा मानवों काअंकन है । पशु का रंग काला है । यह लोमड़ी जैसा लगता है । मानव कत्थई रंग से बनाये गये हैं । इस चित्र से थोड़ा हटकर ६ नर्तक और खड़े हैं । एक ओर शिरोवेष धारण लिये सात आपादमस्तक लबादाधारी मानव और हैं ।
इसी चट्टान में एक अन्य चित्रांकन भी आकर्षक है । इसमें पन्द्रह मानव आकृतियां तथा दो पशु चित्रित किये गये हैं । मानवाकृतियों का आकार समान नहीं है । कुछ बड़ी हैं कुछ छोटी । बडी पशु आकृति के पीछे छोटे पशु का आधा भाग छिप गया है । कुछ विद्वान बडे पशु को पहाड़ी बकरी मानते हैं । पशु की ताम्रवर्ण आकृति पूरक शैेली में बनी है ।
शैलाश्रय के मध्य से आम आदमी की पहुंच से बाहर एक पिटारे जैसी आकृति बनायी गयी है । इसके पास ही एक मानवाकृति खडी है । पूरे शैलाश्रय में यह चित्र सबसे ज्यादा चटकीला है । शैेलाश्रय के दूसरी और वृक्ष जैसी आकृतियों का भी अंकन किया गया है । ऊपर की ओर निगाह उठाते ही बिन्दु समूह एवं सर्प जैसी आकृति दिखाई देती है । आश्चर्य है कि इनका चित्रण इतने ऊपर कैेसे किया बनाया होगा ।
फलसीमा का शैलाश्रय सड़क से थोडी दूर है । औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान से दो किमी. की दूरी पर स्थित इस चट्टान तक पहुँचने के लिए वर्तमान आई. टी. आई. से रास्ता उतरता है । वह मार्ग जो इस स्थान तक ले जाता है, काली मंदिर के पास ही है । लखुवियार की अपेक्षा फलसीमा के चित्रों में काफी विविधता है । यहां विभिन्न मुद्राओं वाली आकृतियों का सहज व स्वाभाविक अंकन किया गया है । यद्यपि यहां के भी अधिकांश चित्र धूमिल हो गये हैं फिर भी जो चित्र स्पष्ट हैं उनमे योग मुद्रा में बैठी आकृति, नृत्य दृश्य, बकरी सदृश पशु, सीढ़ी जैसी आकृतियां हैं । शिला का आकार लखुडियार के मुकाबले छोटा है । चित्रण भी बहुत कमहै । चट्टान खंडित हो मात्र शिलापट रह गयी है ।
कसारदेवी का शैलाश्रय भी अल्मोड़ा से मात्र ६ किमी. की दूरी पर है । इस शिला मे नर्तकों का चित्रण है । शेष संयोजनों का आभास ही होता है । लेकिन समय के थपेडों ने इसे नष्ट कर दिया है । शैलाश्रय भी जर्जर हो गया है । पत्यरों की टेक से उसे किसी तरह गिरने से रोका गया है । यहां के चित्र भी लखुवियार के चित्रों से साम्य रखते प्रतीत होते हैं । एक संयोजन पर किसी ने दुबारा रंग कर दिया है ।
अल्मोडा़ से बागेश्वर जाने वाले रास्ते पर डीनापानी से करीब तीन किमी. की दूरी पर ल्वेथाप नामक शैलाश्रय बिन्तोला-बाराकोट एवं मटेना की सीमा पर है । इस शैलाश्रय की महत्ता इसमें किये गये चित्रों के विशिष्ट होने के कारण है । शैलाश्रय की छत पर रक्तवर्णी मानव समूहों को नृत्य के उन्माद में चित्रित किया गया है । इसके बाद चार मानवाकृतियां हाथों में हाथ डाले चित्रित हैं । एक दृश्य शिकार का भी प्रतीत होता है । एक अन्य दृश्य में सफेद रंग का भी बाहरी किनारों पर प्रयोग हुआ है।
लखुडियार की तरह का ही अंकन कफ्फरकोट नामक शैलाश्रय में है । अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मार्ग पर पेटसाल में उतर कर ठीक पूर्व उत्तर दिशा में लगभग आधा किमी. चलकर पेटसाल और पूनाकोट गांवों के बीच में कफ्फरकोट नामक शैलाश्रय है । कफर का अर्थ है-चट्टान और कोट का अर्थ है-दुर्ग । इस शेैलाश्रय के ठीक सामने नीचे की ओर पूना नदी बहती है । शैलाश्रय काफी कुछ ध्वस्त हो चुका है । पर्वत की धार में यह श्ैालाश्रय स्थित है । वर्तमान समय में नजदीक में बस्ती होने के कारण स्थानीय लोगों ने पटालें निकालने के लिए इस चट्टान का प्रयोग किया है। इस कारण चित्रित हिस्सा भी काफी कुछ नष्ट हो गया है । शेष रह गये चित्रों में सबसे निचली पंक्ति में दायें से बायें क्रम में बारह मानवाकृतियां गहरे कत्थई रंग से और इनके साथ बीच-बीच में हल्के लाल रंग से मानवाकृतियों का चित्रण है । कत्थई रंग से चित्रित आकृतियां मोटी, स्पष्ट एवं लम्बी हैं तथा हल्के लाल रंग से चित्रित आकृतिया लम्बी और पतली हैं ।ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें एक पुरुष आकृति के बाद एक स्त्री आकृति चित्रित की गई होगी । किन्तु दोनों की अलग-अलग पहचान थोड़ा कठिन है ।
इनमें ऊपरी पंक्ति में दस मानव आकृतियों क्रमबद्ध तरीके से चित्रित हैं । इस पंक्ति के ऊपर भी मानवों की श्रृंखला दर्शायी गयी है । एक विशालकाय मानवाकृति विशेष रूप से आकर्षित करती है । पंक्तिबद्ध मानव एक के ऊपर एक खड़े प्रतीत होते हैं । विशाल मानव आकृति इन सबका नेतृत्व कर रही है । एक लम्बी लहरदार रेखा निचली पंक्ति से ऊपरी मानव के कंधे तक खीची गयी है । सम्भव है कि यह सीमा रेखा हो । यद्यपि नृत्यस्त मानवों का समूह नृत्य में कम गतिशील लगता है तथापि एकरुपता, लयबद्धता, बाँह में बाँह डाले मानव श्रंखला झोड़ा नृत्य की बरबस याद दिलाती है । सम्भव है यह नृत्य दृश्य और भी बड़ा रहा हो किन्तु चट्टान के खंडित होने के कारण चित्र संयोजन नष्ट ही गया है ।
इस दृश्य के बाद थोड़ा फासले पर ऊपर की छोर दो विशालकाय जानवरों जैसी आकृतियां एवं उनकी पीठ के सहारे खडी दो विशालकाय मानव आकृतियां चित्रित की गयी हैं । इसके थोडा उपर सत्रह मानवाकृतियों का एक कतारबद्ध समूह नृत्यरत है । इन आकृतियों का रंग कत्थई लाल है । समूह बाहों में बाहें डाले लयबद्ध है । मानवाकृतियां भी अपेक्षाकृत पतली हैं । स्त्री-पुरुष अंकन स्पष्ट नहीं हैं । इसके थोडा ऊपर एक चैपाया है । आखेट दृश्य भी प्राप्त नहीं ही सका है । परिधान अवश्य क्षेत्र में पाये गये अन्य शिलाचित्रों से साम्य रखते हैं, हथियार सदृश वस्तु का भी अंकन ज्ञात नहीं है ।
शैलाश्रय का दायां भाग ध्वस्त हो चुका है, केवल चट्टान का पिछला हिस्सा ही शेष बचा है । इस बचे हिस्से में भी विभिन्न ज्यामिती डिजाइन एवं मानवाकृतियाँ चित्रित. हैं । किन्तु शैलाश्रय का ऊपरी हिसा नष्ट हो जाने के कारण ताप, वर्षा का प्रमाव सर्वाधिक इसी हिस्से पर पडा । इसी कारण चित्र धूमिल हो गये है । वैसे तो सम्पूर्ण शैलाश्रय के चित्र नष्ट प्रायः हैं फिर भी पश्चिम की ओर बाकी बचे हिस्से में कुछ चित्र दृष्टव्य
हैं । एक षटकोणीय आकृति जिसके भीतर इसी प्रकार की अन्य आकूति बनी है का क्या प्रयोजन था, ज्ञात नहीं हो सका है ।
लखुडियार के चित्रित शैलाश्रय के पास ही तीन अन्य चित्रित शैलाश्रय विद्यमान हैं । जिस स्थान पर यह तीनो शैलाश्रय मौजूद हैं यह स्थान फड़कानौली नाम से जाना जाता है । इन चट्टानों के पाषाणी पटों को प्राचीन मानव ने अपनी तूलिका से चित्रित किया है । चट्टान में पंक्तिब्रद्ध चार मानवाकृतियां, रेखा तथा कतारबद्ध मनुष्य आकृतियां है । कुछ चित्र आलेखन जैसे भी बनाये गये हैं । जबकि दूसरी शिला में अनेक स्थानों पर अस्पष्ट चित्र हैं । इनमें नृत्यरत मानव भी हैं । एक शीर्ष विहीन आकूति भी बनायी गयी है । आकृतियां ताम्रवर्णी हस्तबद्ध और गैरिक-श्वेत रंग की ही बनी हैं ।
कुमाऊँ की तरह गढवाल मंडल में भी प्रागैतिहासिक चित्र पाये गये हैं।डुंग्री पाँव चमोली से बार किमी. आगे बद्रीनाथ रोड पर स्थित छिनका नामक स्थान से दो किमी. दूरी पर अलकनंदा के दाहिनी छोर पर उत्तर पूर्व दिशा में स्थित है । गाँव के पास ही गोरखाउडियार के नाम से एक पुरानी शिला है। जीर्णशीर्ण हालत वाली इस गुफा की चट्टान पर भी चित्रों का अंकन मिलता है ।
इस स्थान पर भी चित्रों का अंकन परम्परागत है । लाल-कत्थई रंग से बनाये गये इन चित्रों में मानव तथा पशु अंकित किये गये हैं । लखुडियार, फलसीमा, कसारदेवी तथा मटेना और कफ्फरकोट के
शैलाश्रय मुख्यतः कत्थई लाल रंग से चित्रित किये गये हैं । लखुडियार के शैलाश्रय में काले-सफेद तथा मटेना ग्राम शैलाश्रय में सफेद रंग का प्रयोग हुआ है । प्रकृतिजनित क्रियाओं के कारण रंग हल्के हो गये हैं । काले एवं लाल रंग से पशु बनाये गये हैं । आपादमस्तक वरत्रों से ढ़की मानवाकृतियों का अंकन लाल सफेद रंग से हुआ है । कुछ चित्र रेखाओं सदृश मालूम पड़ते हैं । पशुओं को चित्रित करने का तरीका प्राकृतिक ढंग का है। लेकिन मिर्जापुर या भीमबेटका की तरह चित्रण में दृश्य विविधता का अभाव है । फड़कानौली शैलाश्रय में अंकन का मूल विषय नृत्य जैसा प्रतीत नहीं होता । अधिकाँश चित्र धूमिल हो गये हैं, केवल दो दृश्य थोड़े से मुखर हैं ।
इस चित्र से कई बार यह भी प्रतीत होता है कि सात मानव किसी रस्से जैसी चीज को खींच रहे है । अगली ओर के तीनो मानव जोर लगाने से जेैसे दुहरे हुए जा रहे हैं । कफ्फरक्रोट शैलाश्रय में एक ढोल जैसा वाद्ययंत्र लिये हुए भी मानवाकृति दर्शायी गयी है । डा. यशोधर मठपाल का मानना है कि यदि कुमाऊँ तक स्वंय को सीमित रख चमोली के गोरखाउडियार को छोड़ भी देंय तब भी शेष स्थानों पर मानवों को आखेट से सम्बन्धित नहीं माना जा सकता । वे पशु चारक हैं और अपने जानवरों को हांका देकर गन्तव्य की और ले जाना चाहते हैं । नृत्य जहाँ सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करता है वहीं सामूहिक ग्राम्य जीवन का भी संकेत देता है ।
इन चित्रणों के लिए चट्टान पर किसी लेप का प्रयोग किया गया होगा जान नहीं पड़ता। मिर्जापुर इत्यादि के शैलचित्रों की तरह हो सकता है कि बनैले प्रान्तरों में रंग संभवतरू गेरू, चूना, लकड़ी का बुरादा, कोयला, वनस्पतियों का रस, चर्बी, सिन्दूर आदि के प्रयोग से तैयार किया गया होगा । रंग तैयार करने में पशु रक्त का प्रयोग भी सम्भव है । ल्वेथाप शब्द का शाब्दिक अर्थ खूनी चट्टान या खूनी पंजों के निशान से है जो रक्त क्रो कहीं ना कहीं सम्बन्धित करता मालूम होता है । एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि इन चारों शैलाश्रयों के पास ही कपमार्क्स जैसे चषकाकार गढ़े मौजूद हैं । अनुमान है कि प्राचीन मानव इनके पास ही अपने मुर्दों का शवाधान करता होगा ।
अल्मोड़ा जनपद का कालीमठ से लेकर बाड़ेछीना तक का इलाका अदिम मानव का क्रीड़ास्थल रहा है । हो सकता है कि चीड़, देवदार और बांज के सघन वनों में आज भी न जाने कितने चित्रित शैलाश्रय खोजियों की निगाह का इंतजार कर रहे हों