पंछी, नदियां, पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके ! हिन्दी फिल्म रिफ्यूजी का यह गाना सात समन्दर पार से आने वाले प्रवासी पंछी अबाबील पर बिल्कुल सटीक बैठता है। उत्तराखण्ड में गौत्याली नाम से जानी जाने वाली यह चिडि़या सुदूर से यहां प्रवास के लिए आती है। सदियों से मार्च-अप्रेल माह में कुमाऊॅं के पर्वतीय जिलो में गौत्याली जगह-जगह घोंसला बनाकर प्रजनन के लिए आ रही हैं।
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पहाड़ में इस चिडि़या को धनधान्य का प्रतीक माना जाता है, इसलिए इसके बसेरे का लोग हर साल इंतजार करते हैं। उत्तराखण्ड का मध्य हिमालयी भूभाग अप्रेल से सितम्बर माह तक सामान्य जलवायु और सुखद मौसम के कारण एक ओर जहां देश- विदेश के सैलानियों को बरबस ही आकर्षित करता है वहीं गर्मी के दिनों में दर्जनों प्रजाति के पंछी भी यहां प्रवास के लिए आते हैं। इन्ही में से एक है अबाबील यानि गौत्याली जिसे पहाड़ में लोग धनपुतई, धनचिड़ी, गौतई ,स्वालो आदि के नाम से भी पुकारते हैं।
पर्वतीय इलाकों में सौभाग्य की प्रतीक मानी जाने वाली यह चिडि़या यहां घरों की छतों दीवारों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों में सुरक्षित जगह देखकर अपना घोंसला बनाती हैं। गीली मिट्टी और घास, फूंस से बने यह घोसले देखने में जितने आकर्षित लगते हैं वहीं अबाबील के बच्चों के लिए उतने ही सुरक्षित भी रहते हैं। प्रजनन के उद्देश्य से प्रवास पर आयी धनचिड़ी अपने घोंसले के अंदर बच्चों के संवेदनशील त्वचा के मद्दे नजर पंछी के टूटे पंखेां का गलीचा लगाती है। अप्रेल मास में मादा इसमें अंडे देती है और फिर नर और मादा बारी बारी से इन अंडों को सेते हैं। गौतई के अंडे वजन में औसतन दो ग्राम के होते हैं जिनमें से उन्नीस दिनों के अंदर ही बच्चे निकल आते हैं। बच्चों के सुरक्षा के लिए नर और मादा गौतई दोनों ही संयुक्त भूमिका निभाते हैं। इनके आहार में मुख्य रूप से कीट पतंगे ही होते हैं।
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पहाड़ में शुभता का प्रतीक होने के कारण जिस घर या व्यापारिक प्रतिष्ठान में गौत्याली अपना घोंसला बनाती है उस स्थान से जुड़े लोग अपने को सौभाग्यशाली समझते हैं। धनचिड़ी का मानवजाति के प्रति नजदीक का रिश्ता माना गया है, इसलिए यह चिडि़या निश्चिंत होकर घरों में रह कर मनुष्यों के प्रति आत्मीय रिश्ता कायम करने में सफल हो जाती है। अल्मोड़ा में कुछ दुकानदार सिर्फ इसलिए अपनी दुकानों की खिड़कियां और रोशनदान खुला छोड़ देते हैं जिससे यह चिडि़या दुकान में बिना किसी रोकटोक के अपने बच्चों की देखभाल कर सके। इन दिनों अल्मोड़ा के मुख्य बाजारों के भवनों एवं दुकानों में तो हजारों गौतई अपना बसेरा बनाये हुए हैं।
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स्वालो नाम के इस पंछी का साहित्य से भी नाता रहा है। प्रसिद्ध नाटककार विलियम सेक्सपियर ने ‘दि विन्टर्स टेल‘ नामक पुस्तक में स्वालो के वार्षिक पलायन के बारे में लिखा है। वहीं उन्होने अपने प्रसिद्ध नाटक ‘रिचर्ड थर्ड‘ के पांचवें एक्ट में भी स्वालो को वर्षा और ग्रीष्म रितु के आगमन के प्रतीक के रूप में जिक्र किया है। स्वालो का जिक्र पवित्र बाइबल में भी आता है लेकिन जानकार इसे इजराइल के किसी अन्य पंछी के रूप में देखते हैं। वहीं हिन्दी में भी अबाबील लौट आये हैं नाम से प्रसिद्ध उपन्यास लिखा गया है।
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धनचिड़ी को दुनिया भर में साहित्य के जरिये पहचान भी मिली है। वंश वृद्वि के लिए पहाड़ पर आने वाली इस चिडि़या का वैज्ञानिक नाम हिरडोर स्टिक है। इसे अफ्रीका और यूरोप में बार्न स्वालो के नाम से भी जाना जाता है। बार्न स्वालो उत्तरी यूरोप के ईस्टोनिया देश की राष्ट्रीय पक्षी है। यूरोप, एशिया अमेरिका और अफ्रीका में इसके अलग अलग रंग की पचहत्तर प्रजातियां पायी जाती हैं। जिनमें से मध्य हिमालयी क्षेत्र में प्रवास पर आने वाली मात्र चार ही प्रजातियां हैं। गौतई के शरीर के उपरी भाग का रंग गहरा होता है और पूंछ दो भागों में बंटी होती है। नर अबाबील की लम्बाई औसतन 7.5 इंच और मादा की लम्बाई औसतन 6.7 इंच होती है। प्रजनन के लिए यह पक्षी 2,700 मीटर से लेकर 3000 मीटर तक के ऊॅचाई के क्षेत्र को चुनते हैं।
प्रतिवर्ष मार्च-अप्रेल में पहाड़ में प्रवास पर आने वाली धनचिड़ी अपने वंश की वृद्धि कर सितम्बर महीने तक अपने मूल स्थान के लिये सपरिवार विदा होने लगती है। इसके साथ ही महीनों तक आत्मीयता रखने वाले परिवारों का विरही की भांति शुरू हो जाता है अगले वर्ष उनके चहचहाट भरे आगमन के इंतजार का सिलसिला।
apka post padh kar bahut achha laga .jankari mili ababeel ke bare me