कुमाऊँ में ‘सातूं-आठूं’ का पर्व ‘गमरा-मैसर’ अथवा ‘गमरा उत्सव’ के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व नेपाल और भारत की साझी संस्कृति का प्रतीक है। पिथौरागढ़ व चंपावत जिलों के सीमावर्ती काली नदी के आर-पार के क्षेत्रों में यह पर्व समान रुप से मनाया जाता है। संस्कृति के जानकार लोगों के अनुसार ‘सातूं-आठूं’ पर्व का उद्गम क्षेत्र पश्चिमी नेपाल है, जहां दार्चुला, बैतड़ी, डडेल धुरा व डोटी अंचल में यह पर्व सदियों से मनाया जाता रहा है। सीमावर्ती गांवो के मध्य रोजी व बेटी के सम्बन्ध होने से अन्य रीति-रिवाजों की तरह इस पर्व का पदार्पण कुमाऊं की ओर हुआ। पिथौरागढ़ जिले के सोर, गंगोलीहाट, बेरीनाग इलाके, बागेश्वर जिले के दुग, कमस्यार ,नाकुरी तथा चम्पावत जिले के मडलक व गुमदेश इलाकों में यह पर्व आज भी अटूट आस्था के साथ मनाया जाता है।
सातूं-आँठू का यह लोकउत्सव भादो माह की सप्तमी और अष्टमी को मनाया जाता है। एकतरह से यह वर्षाकालीन उत्सव है जिसमें महिलाएं अखंड सौभाग्य की कामना के साथ व्रत रखकर गौरा-महेश्वर की उपासना करती हैं। भादो की पंचमी को गौरा-महेश्वर के निमित्त एक पात्र में पंच धान्य खास तौर पर गेहूं, मास,चना, लोबिया,मटर आदि को दूब सहित भिगोए जाते है जिन्हें बिरूड कहते हैं,और इन्हें घर के मंदिर में रखा जाता है। सप्तमी के दिन इन बिरुडो से गौरा महेश पूजे जाते हैं। महिलाएं सातू के दिन हाथ में डोर तथा आठू के दिन गले में डुबड़ा पहनती हैं।
पंचमी के दिन पंचधान्य भिगोए जाते हैं, आठूं के दिन अनाज, धतूरे, फल फूलों से गौरा महेश्वर यानी शिव पार्वती की पूजा की जाती है और उनकी गाथा गाई जाती है. रात में जागरण होता है। प्रतीक रूप में शिव पार्वती की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। शाम को महिलाएं गौरा-महेश की प्रतिमा को अपने सिर पर रखते हुए आंगन या मंदिर में लाती हैं और गीत गाती हैं।
‘उपजी गवरा हिमांचली देशा
ल्याओ चेलियो कुकुड़ी का फूला
ल्याओ चेलियो माकुड़ी का फूला
सप्तमी-अष्टमी को बड छ परब
देराणी-जिठानी को बड छ बरत
ल्याओ चेलियो धतुरी का फूला’
पूजा के बाद में गौरा-महेश्वर की प्रतिमाओं का विसर्जन धारों और नौलों में किया जाता है। गाँव के संजायती खोले में चांचरी ( ठुल खेल ) गायी जाती है।
इस उत्सव की विशेषता इसमें गाई जाने वाली गौरा-महेश्वर की गाथा है। बिण भाट की कथा, अठवाली ,आठौं या सातूं-आठूं की कथा के नाम से प्रचलित यह गाथा प्रत्यक्षतः हिमालय के प्रकृति-परिवेश व स्थानीय जनमानस से जुड़ी है। जीवन के कठिन संघर्ष में में लौलि यानी गौरा जब अपने ससुराल हिमालय से मायके को जा रही होती है तो वह बार-बार मार्ग भटकती रहती है जगह-जगह पर तमाम पेड़-पौंधों व लता झाड़ियों से वह रास्ता पूछते हुए
आगे बढ़ती रहती है। प्रतीक रूप में तब समूची प्रकृति गौरा के लिए पथ प्रदर्शक और आश्रय दाता की भूमिका में आ जाती है।
गौरा महेश्वर की गाथा में शिव पार्वती को आम मनुष्यों के रूप में चित्रित कर पहाड़ी जन-जीवन, मौजूद समाज के विविध पक्ष और यथार्थ को सामने लाने की विलक्षण कोशिश की गई है। एक आम स्त्री के अंदर उपजे संघर्ष, कर्म और कर्तव्य की मनसा व पीड़ा इन गाथाओं में मिलती है। लोक जीवन में रचे-बसे पात्र लौलि यानी पार्वती अपने पिता के घर मायके को जाने वाला मार्ग प्रकृति के विभिन्न सहचरों से पूछती रहती है। यहां पर प्रतीक रूप में प्रकृति गौरा के लिए पूरी तरह एक पथ प्रदर्शक और शरण दाता की भूमिका में नज़र आती है। वह अनेकानेक वनस्पतियों से रास्ता पूछते-पूछते नीम्बू के पेड़ के पास भी आती है और कहती है-
‘बाटा में की निमुवा डाली
म्यर मैत जान्या बाटो कां होला
दैनु बाटा जालो देव केदार,
बों बाटा त्यारमैत जालो ‘
(ए रास्ते के नीम्बू की डाली जरा बता तो मेरे मायके को जाने वाला रास्ता किधर से जाता है तब नीम्बू के डाली विनम्र भाव से उत्तर देती है कि दाहिनी ओर का रास्ता शिव के केदार को जाता है और बाएं ओर का रास्ता तुम्हारे मायके जाने का रास्ता है।)
श्रुति परम्परा में चली आ रही इन गाथाओं में वेद-पुराणों से लेकर स्थानीय प्रकृति और समाज से जुड़े रोचक आख्यान समाहित हैं। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि गौरा और महेश्वर हिमालय वासियों के साथ अत्यंत आत्मीय रिश्ते में नजर आते हैं। पहाड़ के लोक ने निश्छल भाव से गौरा को बेटी/दीदी तथा महेश्वर को जवाईं/भीना (जीजा) के रुप में प्रतिस्थापित किया हुआ है जो कि दुर्लभ है।
बढिया लेख
सातूं आठूँ डीडीहाट , मुंसियारी और धारचुला क्षेत्रों में भी धूम धाम से मनाई जाती है ।
डीडीहाट में नन्दा महोत्सव में प्रसिद्ध चाँचरी प्रतियोगिता होती है ।
अजय कन्याल
मेरा उत्तराखण्ड और मेरे गौरा पार्वती 🙏🌳🌻