पर्वतीय क्षेत्रों की दुर्गम भूमि को उर्वरा करने के लिए यहाँ की महिलाओं ने अत्यधिक श्रम से धरती को सींचा है। दुर्जेय पर्वत मालाओं के बीच रमणीय घाटियों में धान की सुनहली बालियों के खेत दूर से आकर्षित तो जरूर करते हैं लेकिन उनको रोपने, सींचने में अपार श्रम लगा है। रोजी रोटी की तलाश में मैदान की ओर पुरुषों के पलायन के कारण गाँव के गाँव रीते होते चले गये और खेती का सारा भार महिलाओं पर आ पड़ा । घाटियों में पानी के नजदीक की उपजाऊ जमीन का रकबा बड़ा था लेकिन उसको रोपने वाले संख्या में कम थे । सम्भवतः इसलिये ही सामूहिक खेती की नींव पड़ी।
कुमाऊँ मंडल में सोमेश्वर, गरूड़ आदि इलाकों में भरपूर उपजाऊ जमीन होने के कारण सामूहिक कृषि का आयोजन होने लगा। पौधों की रोपाई का दुरूह कार्य महिलाओं ने समवेत रूप से अपने हाथ में ले लिया।
कुमाऊँ की भूमि में गीत-संगीत भी लगभग प्रत्येक कार्य में अभिन्न रूप से जुड़ गये हैं। कृषि कार्यों में भी गीतों की लय के साथ रोपाई के हाथ चलने लगे और हुड़किया बौल जैसे कृषि गीतों की विधा पृथक से अस्तित्व में आ गई।
शिव के डमरू से उद्भूत हुड़के क्षेत्र का प्रमुख ताल वादय है । हुड़के की ताल के साथ कृषि कार्य में जो श्रम किया जाने लगा वही हुड़किया बौल के नाम से जाना जाता है । वर्तमान में हुडके के साथ गाये जाने वाले गीतों के आयोजन की पूरी विधा को ही हुड़किया बौल नाम दिया गया है । कुछ इलाकों में मंडुऐ की गुडाई के समय भी हुड़किया बौल के आयोजन की परम्परा है। हुड़किया बौल सोमेश्वर की बोरारों घाटी और गरूड़, घाटियों के ही ज्यादा प्रसिद्ध हैं।
इस आयोजन के लिए गाँव में सामूहिक रोपाई के लिए घरों की महिलाओं को निश्चित तिथी पर रोपाई प्रारम्भ करने के लिए बुलाने की परम्परा है। हुड़का बजाने वाला गायक हुड़किया कहलाता है। प्रायः यह अपने साथ जोड़ लगाने के लिए एक या दो सहायकों को भी साथ लाता है। यह सहायक हेवार कहलाते हैं। रोपाई आयोजन प्रातः प्रारम्भ होता है। मुख्य गायक भूमि देवता को नमन और ईष्ट की प्रार्थना के साथ गीत प्रारम्भ करता है। गीत के साथ ग्राम देवता सहित अनेक देवताओं का आह्वान करके उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे इस कठिन कार्य को पूरा करने में मदद दें।
प्रार्थना गीतों में देवताओं से सर्वत्र समृद्धता प्रदान करने और अनिष्ट को दूर कर उन्नत खेती के लिए निवेदन किया जाता है। इन गीतों में कहा जाता है कि बिना देवता के अनूकूल बने रहे खेती का उत्तम हो पाना दुष्कर कार्य है। इसलिए भूमि, गाँव, कुल और घर के इष्ट देवता सभी अनूकूल बने रहकर रोपाई और फसल उत्पन्न करने में सहायक बने रहना । घाटियों मैं धूप का प्रकोप बहुत ज्यादा होता है, इसलिए कृपा बनाये रखना।
प्रार्थना गीतों के बाद हुड़किया कृषि कार्य का मोहक दृश्य गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है कि स्त्रियों की कतारें रोपाई कर रही हैं, बादल घुमड़-घुमड़कर जल से पौधों को सींच रहे हैं ।
गीतों को क्रम गायक अपनी सुविधानुसार भी बदलता चलता है। बीच-बीच में भड़ों गीतों के माध्यम से वीरों, मल्लों की गाथायें गायी जाती हैं। पौराणिक आख्यान लिये गीतों की भरमार रहती है। कभी-कभी प्रेम प्रसंगों पर आधारित श्रृंगार गीतों को भी स्थान दिया जाता है।
रोपाई का कार्य मंद न हो तथा गति में शिथिलता ना आये इस उद्देश्य से मुख्य गायक बीच-बीच में टोकता भी रहता है । भोजन इत्यादि का सारा भार उस व्यक्ति पर होता है जो हुड़किया बौल के माध्यम से रोपाई का आयोजन करता है।
रोपाई का समय समाप्त होने पर सभी के प्रति शुभकामनायें व्यक्त करते हुए विदाई ली जाती है।
सोमेश्वर, कत्यूर, गणाई आदि घाटियों में आज भी खेतों में रोपाई करते महिलाओं की कतारें देखी जा सकती हैं। लेकिन ज्यों-ज्यों खेती का क्षेत्रफल कम होकर छोटा होता चला गया, सामूहिक रोपाई भी ऐसी नहीं रह गयी है कि उसमें सैकड़ों की संख्या में महिलाएँ भाग ले सकें। खेती के बंट जाने का प्रभावरूप से लोक संस्कृति पर पड़ा है। इसलिए सामूहिक रोपाई का चलन भी कम होता जा रहा है।