उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में महिलाओं की मांगलिक परिधान एवं आभूषणों को लेकर यदि पहली पसंद पूंछी जाये तो उनका उत्तर होगा- पिछौड़ा एवं नथ। नथ ग्रामीण हो या शहरी सभी महिलाओं की सर्वप्रिय मांगलिक आभूषण है।
शायद ही कोई अवसर ऐसा होगा जब परिवार में उत्सव हो, संस्कार हो, अनुष्ठान सम्पन्न किया जाने वाला हो या फिर मंगलमयी आयोजन हो, पिछोैड़े एवं नथ का प्रयोग व्यापक रूप में विवाहित महिलाओं द्वारा न किया जाता हो। सच तो यह है कि इन सर्वप्रिय पारम्परिक श्रंगारिक वस्त्राभूषणों का प्रयोग होता देखकर दूर से ही अनुमान हो जाता है कि इस परिवार में किसी उत्सव या फिर संस्कार का आयोजन सम्पन्न हो रहा है। महिलाओं द्वारा धारण किये गये-पिछौड़ा और नथ परिवार में गौरवमयी अवसरों का प्रतीक बन गये हैं ।
नथ एक शादीशुदा मांगलिक महिला के सुहाग की प्रतीक भी है और परम्परा के अनुसार उत्सवों, सामाजिक समारोहों और धार्मिक अवसरों पर प्रायः पहनी जाती है।
नाक के लिए एक आभूषण के रूप में नथ का प्रयोग समूचे भारत में प्राचीन समय से होता आ रहा है। भारतीय महिलाओं में नथ के विभिन्न रूपों में प्रयोग के प्रमाण लगभग एक हजार वर्ष तक प्राचीन हैं लेकिन पर्वतीय समाज में पिछले दो सौ साल में नथ ने इस कदर लोकप्रियता प्राप्त की है कि माना जाता है कि यह आभूषण सैकड़ो साल से स्थानीय समाज में रचा बसा हुआ है। यही नहीं नथ को अवसर विशेष के लिए सुहागिन महिलाओं के अनिवार्य अलंकरण के रूप में भी मान्यता मिली है। आयुर्वेद ने भी महिलाओं के नाक में आभूषण धारण करने को स्वास्थ के लिए अति उत्तम माना है।
इतिहासकार मानते हैं कि टिहरी रियासत के राजपरिवार की महिलाओं द्वारा विशेष रूप से की गई रत्न जडि़त नक्काशी वाली नथों का प्रयोग किये जाने के बाद यह समूचे पर्वतीय समाज का सौभाग्य सूचक लोकप्रिय आभूषण बन गई। सुन्दरता की दृष्टि से टिहरी की नथ सबसे ज्यादा मशहूर है। यह आकार में बड़ी होती है और इसमें बहुमूल्य रत्नों की सजावट होती है।
नथ को विवाहिता के सबसे महत्वपूर्ण आभूषणों में से एक माना जाता है। यह विवाह के अवसर पर पुत्री को उसके मायके से सौभाग्यरूपी उपहार के रूप में प्रदान की जाती है। विवाह के समय पिछौड़ा और नथ को धारण कर ही नववधू द्वारा महत्वपूर्ण कर्मकांड सम्पन्न किये जाते हैं। इस अवसर पर न केवल दुल्हन अपितु रिश्ते नाते की महिलाऐं भी इन दोनो परिधान एवं आभूषणों से सजी रहती है। नथ को बायें नासापुट में ही पहना जाता है। कुमाउनी नथ आकार में काफी बड़ी होती है लेकिन इस पर डिजाइन कम होता है। गढ़वाली नथ की अपेक्षया कुमाउनी नथ पर ज्यादा काम नहीं होता लेकिन यह महिलाओं की सुन्दरता को द्विगुणित अवश्य कर देती है।
नथ परिवार में पुत्री और वधू के मान का भी प्रतीक है। अब तो नथ का मूल्य और आकार समाज में आर्थिक हैसियत का भी प्रतीक बन गया है। कुछ परिवारों में तो परम्परा थी कि परिवार ज्यों-ज्यों सम्पन्न होता जाता नथ में उसी अनुसार वजन और आकार बढ़ा दिया जाता था। आमतौर पर नथ का वजन एक सौ ग्राम तक रहता था तथा गोलाई भी 25 सेमी तक रहती थी।
कुमाऊँ में नथ जैसे नाक के कई आभूषण मिलते हैं। ग्रामीण अंचलों में नथ के लिए बेसर शब्द का प्रयोग होता है। कम वजन वाली छोटी सी नथ को नथनिया कहा जाता है परन्तु यह लोकप्रियता में नथ का मुकाबला नहीं कर पायी है। नथ सादी या रत्नजडि़त दोनो ही तरह की होती है।
परम्परागत स्वर्ण आभूषणों के प्रसिद्ध निर्माता भगवान दास मनोज वर्मा फर्म के स्वामी मनोज वर्मा कहते हैं- नथ चन्दक, किरकी, अठपहल दाना, लटकन, मोती, जालियां, दो धारियां, इकार, चेन तथा पवर जैसे भागों में विभक्त होती है। सबसे पहले चन्दक, लटकन तथा किरकियों का निर्माण किया जाता है। चन्दक में आठ छोटे-छोटे रत्न जड़े होते है। चन्दक के वजन से ही पूरी नथ का वजन तथा संतुलन निर्धारित होता है। पूर्ण चन्द्राकार नथ का एक भाग प्रायः सादा ही होता है जबकि दूसरे अर्धचन्द्राकार भाग पर नथ की महत्वपूर्ण सज्जा होती है। अलग- अलग भागों को जोड़ कर पूरी नथ को अन्तिम रूप दिया जाता है।
मनोज कहते है – नथ पर कुन्दन का काम पहले बरेली और आजकल जयपुर में करवाया जाता है। कुन्दन नथ की सुन्दरता को और ज्यादा बढ़ा देता है।
स्वर्णाभूषणों की खासी शौकीन श्रीमती पुष्पा तिवारी कहती हैं- भले ही भारी भरकम परम्परागत नथ की जगह अब आधुनिक स्टाइलिश नथ ने ले ली है लेकिन परम्परागत नथ को पहनने से जो गरिमा की अनुभूति होती है उसको तो शब्दों में व्यक्त ही नहीं किया जा सकता। इसी लिए नथ को शुभता और मांगल्य का पर्याय बना दिया गया है और आयोजनों में महिलाओं के आभूषणों के प्रदर्शन का प्रतीक भी।