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रंगवाली का पिछौड़ा

एक दुल्हन के लिए कुमाऊं में पिछौड़े का वही महत्व है जो एक विवाहित महिला के लिए पंजाब में फुलकारी का, लद्दाखी महिला के लिए पेराक या फिर एक हैदराबादी के लिए दुपट्टे का है। यह एक शादीशुदा मांगलिक महिला के सुहाग का प्रतीक है और परम्परा के अनुसार उत्सवों , सामाजिक समारोहों और धार्मिक अवसरों पर प्रायः पहना जाता है। कई परिवारों में इसे विवाह के अवसर पर वधुपक्ष या फिर वर पक्ष द्वारा एक दूसरे पक्ष को भी प्रदान किया जाता है।

फोटो सौजन्यः श्रीमती स्मिता जोशी अल्मोड़ा

पर्वतीय क्षेत्रों में सुहागिन महिलाओं द्वारा मांगलिक अवसरों पर गहरे पीले रंग की सतह पर लाल रंग से बनी बूटेदार ओढ़नी पहनने का प्रचलन है। इस ओढ़नी को रंगोली का पिछौड़ा या रंगवाली का पिछौड़ा कहते हैं। विवाह, नामकरण, त्योेहार, पूजन-अर्चन जैसे मांगलिक अवसरों पर बिना किसी बंधन के विवाहित महिलायें इसका प्रयोग करती हैं।

अल्मोड़ा में वर्तमान में भी अनेक परिवार ऐसे हैं जिनमें परम्परागत रूप से हाथ से कलात्मक पिछौड़ा बनाने का काम होता है। लगभग 35 साल से हाथ से पिछौड़ा बनाने के काम में लगी श्रीमती शीला साह कहती हैं-सस्ते बाजारू पिछौ़ेडे के बावजूद हाथ से बने पिछौड़े का आकर्षण आज भी इतना अधिक है कि अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत तथा पिथौरागढ़ जैसे पर्वतीय जनपदों के अतिरिक्त भी दिल्ली, मुंबई, लखनऊ तथा विदेशों में रहने वाले पर्वतीय परिवारों में इनकी खरीददारी भारी मात्रा में होती है। बारातों के सीजन में एक-एक कलाकार हजार-बारह सौ तक पिछौड़े बना लेता है जिसकी कीमत भी कपड़े की कीमत के अनुसार नौ सौ रूपयों तक है।

कुछ समय पहले तक घर-घर में हाथ से पिछौड़ा रंगने का प्रचलन था। लेकिन अब कई परिवार परम्परा के रूप में मंदिर के लिए कपड़े के टुकड़े में शगुन कर लेते हैं। मायके वाले विवाह के अवसर पर अपनी पुत्री को यह पिछौड़ा पहना कर ही विदा करते थे। पर्वतीय समाज में पिछौड़ा इस हद तक रचा बसा है कि किसी भी मांगलिक अवसर पर घर की महिलायें इसे अनिवार्य रूप से पहन कर ही रस्म पूरी करती हैं। सुहागिन महिला की तो अन्तिम यात्रा में भी उस पर पिछौड़ा जरूर डाला जाता है।

हस्त निर्मित पिछौड़ा निर्माण में दक्ष श्रीमती मुक्ता पंत पांडे कहती हैं-पिछौड़ा बनाने के लिए वाइल या चिकन का कपड़ा काम में लिया जाता है। पौने तीन अथवा तीन मीटर लम्बा तथा सवा मीटर तक चौड़ा सफेद कपड़ा लेकर उसे गहरे पीले रंग में रंग लिया जाता है। आजकल रंगाई के लिए सिंथेटिक रंगों का प्रचलन है लेकिन जब परम्परागत रंगों से इसकी रंगाई की जाती है तब किलमो़ेडे की जड़ को पीसकर अथवा हल्दी से रंग तैयार किया जाता है। रंगने के बाद इसको छाया में सुखाया लिया जाता है। इसी तरह लाल रंग बनाने के लिए कच्ची हल्दी में नींबू निचोड़ कर सुहागा डाल कर तांबे के बर्तन में रात के अंधेरे में रखकर सुबह इस सामग्री को नींबू के रस में पका लिया जाता है। रंगाकन के लिए कपड़े के बीच में केन्द्र स्थापित कर खोरिया अथवा स्वास्तिक बनाया जाता है। इसके चारों कोनों पर सूर्य, चन्द्रमा, शंख, घंटी आदि बनायी जाती है। महिलायें सिक्के पर कपड़ा लपेट कर रंगाकन करती है।

लोककला मर्मज्ञ प्रदीप साह के अनुसार पिछौड़ा सम्पूर्णता का प्रतीक है। प्रतीकात्मक रूप में लाल रंग वैवाहिक जीवन की संयुक्तता, स्वास्थ्य तथा सम्पन्नता का प्रतीक है जबकि सुनहरा, पीला रंग भौतिक जगत से जुड़ाव दर्शाता है। सम्पन्न परिवारों में अतिविशिष्ट अवसरों पर मंहगे बनारसी पिछौड़े भी मंगाये जाते हैं। लेकिन हस्तनिर्मित पिछौड़े की सुन्दरता देखकर कहा जा सकता है कि उत्पाद कला की दृष्टि से यह मंजे हाथों का कमाल है जिस पर संकट धीरे-धीरे आ रहा है।

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